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________________ १८८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ऊर्ध्व लोक सौधर्मकल्प के समान ऊँचाई पर ईशान कल्प नामक द्वितीय कल्प संस्थित है। इन दोनों अर्द्ध चन्द्राकार कल्पों का आकार परस्पर मिलाने से वलयाकार बन गया है। सौधर्म कल्प में दक्षिणार्द्ध लोकपति शक और ईशान कल्प में उत्तरार्द्ध लोकपति ईशानेन्द्र अपने सामानिक, वात्रिंश, पारिषद, आत्मरक्षक, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक आभियोगिक और किल्विषी देवों तथा अग्रमहिषियों एवं विशाल देवी परिवार के साथ रहते हैं । इन प्रथम दो कल्पों से कोटानुकोटि योजन ऊपर, सौधर्म कल्प के ऊपर अर्द्धचन्द्राकार सनत्कुमार नामक तीसरा कल्प और ईशानकल्प के ऊपर अर्द्धचन्द्राकार माहेन्द्र नामक चोथा कल्प है। तीसरे और चौथे कल्प से अनेक कोटानुकोटि योजन ऊपर ब्रह्मलोक नामक पाँचवां कल्प है। इसमें ब्रह्मेन्द्र नामक इन्द्र अपने विशाल देव परिवार के साथ रहता है। ब्रह्मलोक के अरिष्ट नामक विमान तक जो आठ कृष्ण राजियां आई हुई हैं, उनके आठ अवकाशान्तरों में स्थित अचि, अचिमाली, वैरोचन, (प्रभंकर, शुभंकर), चन्द्राभ, सुराभ, शुक्राभ, सुप्रतिष्ठाभ और रिष्टाभ नामक आठ लोकान्तिक विमानों में क्रमशः सारस्वत, आदित्य, वरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, प्राग्नेय और रिष्ट जाति के लोकान्तिक देव रहते हैं। ये लोकान्तिक देव महाज्ञानी और एक भवावतारी होते हैं। ये लोकान्तिक देव तीर्थंकरों द्वारा दीक्षा ग्रहण करने का विचार किये जाने पर अपने जीताचार के अनुसार उन्हें दीक्षार्थ प्रार्थना करने उनकी सेवा में उपस्थित होते हैं। ये लोकान्तिक देवों के विमान जिन आठ कृष्णराजियों के अवकाशान्त रालों में अवस्थित हैं, वे कृष्णराजियां एक प्रदेश की श्रेणी वाली तमस्काय हैं । ति - लोक में असंख्यात द्वीप-समुद्रों के पश्चात् जो अरुणोदय समुद्र है उससे पहले के अरुणवरद्वीप की वेदिका के बहिरंग भाग से ४२ लाख योजन दूर अरुणोदय सागर के पानी के ऊपर के भाग से तमस्काय का प्रारम्भ हुआ है । अरुणोदय सागर के जल से १७२१ योजन ऊपर उठ कर ऊपर की ओर उत्तरोत्तर फैलती हुई ये प्रष्ट कृष्णराजियां ब्रह्मकल्प नामक पांचवें देवलोक के रिष्ट विमान तक पहुंच कर पूर्ण हुई हैं। ब्रह्मलोक नामक पांचवें कल्प के अनेक कोटानकोटि योजन ऊपर छठा लान्तक नामक कल्प, उससे अनेक कोटानुकोटि योजन ऊपर सातवां सहस्रार नामक कल्प और उससे कोटानकोटि योजन ऊपर महाशक्र नामक पाठवाँ कल्प है। इन कल्पों में से प्रत्येक कल्प में एक-एक इन्द्र है, जो इन कल्पों के देवों का स्वामी है। महाशुक्र नामक पाठवें कल्प के अनेक कोटानकोटि योजन ऊपर पानत और प्राणत नामक नवें और दशवें कल्प हैं। इन दोनों स्वर्गों का स्वामी प्रानत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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