________________
चक्रवर्ती हरिषेण
इक्कीसवें तीर्थंकर भ० नमिनाथ के समय में, उनकी विद्यमानता में ही इस भरतक्षेत्र के दसवें चक्रवर्ती सम्राट् हरिषेण हुए ।
इसी जम्बूद्वीपस्थ भरतक्षेत्र के पांचाल प्रदेश के काम्पिल्यनगर में महाहरि नामक एक इक्ष्वाकुवंशीय राजा न्याय-न - नीतिपूर्वक प्रजा का पालन करते थे । उनकी पट्ट महिषी का नाम महिषी था । अनेक वर्षों तक ऐहिक ऐश्वर्य एवं विविध भोगों का उपभोग करते हुए महारानी महिषी ने एक रात्रि में चौदह शुभ स्वप्न देखे । गर्भकाल पूर्ण होने पर महारानी ने चक्रवर्ती के सभी लक्षणों से युक्त एक ओजस्वी पुत्ररत्न को जन्म दिया । माता-पिता ने अपने उस पुत्र का नाम हरिषेण रखा । राजकुमार हरिषेण का ऐश्वर्यपूर्ण राजसी ठाटबाट से लालन-पालन किया गया । समय पर उसे उच्चकोटि के कलाचार्यों से सभी प्रकार की विद्यानों एवं कलाओं का शिक्षरण दिलाया गया । भोगसमर्थ वय में युवराज हरिषेण का अनेक कुलीन राजकन्याओं के साथ पाणिग्रहण
करवाया गया ।
३२५ वर्ष तक राजकुमार हरिषेण कुमारावस्था में रहे । तदनन्तर महाराजा महाहरि ने अपने पुत्र हरिषेण का काम्पिल्य राज्य के राजसिंहासन पर महोत्सवपूर्वक राज्यभिषेक किया । ३२५ वर्षं तक महाराजा हरिषेण ने माण्डलिक राजा के रूप में अपनी प्रजा का न्याय-नीतिपूर्वक पालन किया । उस समय एक दिन महाराजा हरिषेण की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । चक्ररत्न के मार्गदर्शन में महाराजा हरिषेण ने दिग्विजय का अभियान किया । १५० वर्षों तक दिग्विजय करते-करते महाराज हरिषेण ने सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के छहों खण्डों की साधना की और वे चक्रवर्ती सम्राट् के पद पर अभिषिक्त एवं चौदह रत्नों तथा नौ निधियों के स्वामी हुए । ८८५० वर्ष तक चक्रवर्ती पद पर रहते हुए उन्होंने सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर शासन किया । तदनन्तर उन्होंने षट्खण्ड के विशाल साम्राज्य और चक्रवर्ती की सभी ऋद्धियों को तृणवत् ठुकरा कर सभी प्रकार के सावद्य कार्यों का परित्याग करते हुए श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की। मुनि हरिषेण ने ३५० वर्ष तक घोर तपश्चरण करते हुए विशुद्ध संयम की परिपालना की और आठों कर्मों का अन्त कर १० हजार वर्ष की आयु पूर्ण होने पर अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, शाश्वत सुखधाम मोक्ष में पधारे ।
Jain Education International
O
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org