________________
चक्रवती जयसेन
इक्वीसवें तीर्थंकर भ० नमिनाथ के परिनिर्वाण के दीर्घकाल पश्चात् उन्हीं के शासनकाल अर्थात् धर्मतीर्थ काल में इस भरतक्षेत्र के ग्यारहवें चक्रवर्ती सम्राट् जयसेन हुए।
___ आज से सुदीर्घ काल पूर्व मगध राज्य की राजधानी राजगृही नगरी में विजय नामक राजा राज्य करते थे। उनकी पट्टरानी का नाम वप्रा था । एक रात्रि में सुखप्रसुप्ता महारानी वप्रा ने १४ शुभ स्वप्न देखे । स्वप्नों को देखते ही महारानी जागृत हुई एवं हर्षविभोर हो उसी समय अपने पति महाराज विजय के शयनकक्ष में गई और उन्हें अपने चौदह स्वप्नों का पूरा विवरण सुनाया । महाराजा विजय ने प्रातःकाल स्वप्न पाठकों को बुलवाया और उन्हें महारानी द्वारा देखे गये स्वप्नों का वृत्तान्त सुनाते हुए उन स्वप्नों का फल पूछा । स्वप्नशास्त्र में उल्लिखित तथ्यों पर चिन्तन-मनन के पश्चात् स्वप्नपाठकों ने महाराज विजय से निवेदन किया-"राजराजेश्वर ! राजेश्वरी महारानी ने जो चौदह स्वप्न देखे हैं, उनकी स्वप्नशास्त्र में सर्वश्रेष्ठ स्वप्नों में गणना की गई है। ये स्वप्न महाशुभ फलप्रदायी हैं। ये स्वप्न यही पूर्व सूचना देते हैं कि महाराज्ञी महापराक्रमी चक्रवर्ती पुत्ररत्न को जन्म देंगी।
स्वप्न फल सुन कर राजदम्पति, उनके परिजनों एवं पौरजनों के हर्ष का पारावार नहीं रहा । गर्भकाल पूर्ण होने पर महारानी वप्रा ने एक महातेजस्वी एवं नयनानन्दकारी पुत्ररत्न को जन्म दिया। महाराज विजय ने परिजनों, पौरजनों और अभ्यर्थियों को मुक्तहस्त हो सम्मान-दानादि से सन्तुष्ट किया। राजदम्पति ने अपने पुत्र का नाम जयसेन रखा । राजकुमार जयसेन का शैशवकाल में राजसी ठाट-बाट से लालन-पालन, किशोर वय में राजकुमारोचित शिक्षण-दीक्षण और भोगसमर्थ युवावस्था में अनेक अनिन्द्य सुन्दरी कुलीन राजकन्यानों के साथ पाणिग्रहण कराया गया। शास्त्र-शस्त्रास्त्रादि विद्यामों तथा कलाभों में निष्णात राजकुमार जयसेन ३०० वर्षों तक कुमारावस्था में रहे । तदनन्तर महाराज विजय अपने पुत्र जयसेन को राज्यसिंहासन पर अभिषिक्त कर प्रवजित हो गये । महाराजा बनने के पश्चात् जयसेन ने ३०. वर्ष तक माण्डलिक राजा के रूप में शासन किया। अपनी प्रायुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न होने के पश्चात महाराजा जयसेन ने १०० वर्ष तक दिग्विजय करते हुए सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के छहों खण्डों पर अपनी विजयवैजयन्ती फहराई पौर वे चक्रवर्ती सम्राट् बने । चौदह रत्नों और ६ निषियों के स्वामी जयसेन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org