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प्रलौकिक बल]
भगवान् श्री अरिष्टनेमि
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कुमार अरिष्टनेमि के चले जाने के अनन्तर कृष्ण ने बलराम से कहा"भैया ! देखा आपने अपने छोटे भाई का बल ! मैं तो वृक्ष की डाल पर गोपबाल की तरह कुमार की भुजा पर लटक गया । इतना अपरिमित बल तो चक्रवर्ती और इन्द्र में भी नहीं होता। इतनी अमित शक्ति के होते हुए भी यह हमारा अनुज समग्र भरत के छःहों खण्डों को क्यों नहीं जीत लेता?"
बलराम ने कहा-"चक्रवर्ती और इन्द्र से अधिक शक्तिशाली होते हुए भी कुमार स्वभाव से बिल्कुल शान्त हैं। उन्हें किंचित् मात्र भी राज्यलिप्सा नहीं है ।"
फिर भी कृष्ण के मन का सन्देह नहीं मिटा । उस समय आकाशवाणी हुई कि ये बाईसवें तीर्थंकर हैं, बिना विवाह किये ब्रह्मचर्यावस्था में ही प्रवजित होंगे।
तदनन्तर कृष्ण ने अपने अन्तःपुर में जाकर कुमार अरिष्टनेमि को बुलाया और बड़े प्रेम से अपने साथ खाना खिलाया । कृष्ण ने अपने अन्तःपुर के रक्षकों को आदेश दिया कि कुमार अरिष्टनेमि को बिना रोक-टोक के समस्त अन्तःपुर में आने-जाने दिया जाय, क्योंकि ये पूर्णरूपेण निर्विकार हैं।
कुमार अरिष्टनेमि सहज शान्त, भोगों से विमुख और निर्विकार भाव से सुखपूर्वक सर्वत्र विचरण करते । रुक्मिणी आदि सभी रानियाँ उनका बड़ा सम्मान रखतीं । कृष्ण उनके साथ ही खाते-पीते और क्रीड़ा करते हुए बड़े मानन्द से रहने लगे । कुमार नेमि पर कृष्ण का स्नेह दिन प्रति दिन बढ़ता हो गया।
एक दिन उन्होंने सोचा-"नेमि कुमार का विवाह कर इन्हें दाम्पत्य जीवन में सुखी देख सकू तभी मेरा राज्य, ऐश्वर्य एवं भ्रातृ-प्रेम सही माने में सार्थक हो सकता है और यह तभी सम्भव हो सकता है जब कि कुमार अरिष्टनेमि को भोग-मार्ग की ओर आकर्षित कर उनके मन में भोग-लिप्सा पैदा की जाय ।"
यह सोचकर श्रीकृष्ण ने अपनी सब रानियों से कहा- "मैं कुमार अरिष्टनेमि को सब प्रकार से सुखी देखना चाहता हूँ । मेरी यह आन्तरिक अभिलाषा है कि किसी सुन्दर कन्या के साथ उनका विवाह कर दिया जाय और वे विवाहित जीवन का आनन्दोपभोग करें । पर कुमार सांसारिक भोगों के प्रति पूर्ण उदासीन हैं । अतः यह आवश्यक है कि विरक्त और भोगों से पराङ मुख अरिष्टनेमि को हर सम्भव प्रयास कर विवाह करने के लिये राजी किया जाय ।"
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