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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० महावीर और बुद्ध के यह तो सर्वविदित है कि उस समय सनातन, जैन और बौद्ध ये तीन प्रमुख धर्म-परम्पराएं मुख्य रूप से थीं जो आज भी प्रचलित हैं । ७७८ बुद्ध के जीवन के सम्बन्ध में जैनागमों में कोई विवरण उपधब्ध नहीं होता । बौद्ध शास्त्रों और साहित्य में बुद्ध के निर्वाण के सम्बन्ध में जो विवरण उपलब्ध होते हैं वे वास्तव में इतने अधिक और परस्पर विरोधी हैं कि उनमें से किसी एक को भी तब तक सही नहीं माना जा सकता जब तक कि उसको पुष्ट करने वाला प्रमाण बौद्धतर अथवा बौद्ध साहित्य में उपलब्ध नहीं हो जाता । ऐसी दशा में हमारे लिये सनातन धर्म के पौराणिक साहित्य में बुद्ध विषयक ऐतिहासिक सामग्री को खोजना आवश्यक हो जाता है । सनातन परम्परा के परम माननीय ग्रन्थ श्रीमद्भागवत पुराण के प्रथम स्कन्ध, अध्याय ६ के श्लोक संख्या २४ में बुद्ध के सम्बन्ध में ऐतिहासिक दृष्टि से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्य उपलब्ध होता है जिसकी ओर संभवतः आज तक किसी इतिहा सज्ञ की सूक्ष्म दृष्टि नहीं गई । वह् श्लोक इस प्रकार है ततः कलौ संप्रवृत्ते, सम्मोहाय सुरद्विषाम् । बुद्धो नाम्नाजनसुतः, कीकटेषु भविष्यति ।। अर्थात् उसके बाद कलियुग आजाने पर मगध देश (बिहार) में देवतानों द्वेषी दैत्यों को मोहित करने के लिए अंजनी ( प्रांजनी) के पुत्ररूप में आपका बुद्धावतार होगा । इस श्लोक में प्रयुक्त नाम्ना जनसुतः यह पाठ किसी लिपिकार द्वारा अशुद्ध लिखा गया है ऐसा गीता प्रेस से प्रकाशित श्रीमद्भागवत, प्रथम खंड के पृष्ठ ३६ पर दिये गये टिप्पण से प्रमाणित होता है । इस श्लोक पर टिप्पण संख्या १ में लिखा है"प्रा० पा० - जिनसुतः” जिन शब्द का अर्थ है - राग-द्वेष से रहित । राग-द्वेष से रहित पुरुष के पुत्रोत्पत्ति का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । वास्तव में यह शब्द था 'प्रांजनि-सुतः' जिसकी न पर लगी इ की मात्रा ज पर किसी प्राचीन लिपिकार द्वारा लगा दी गई । तदनन्तर किसी विद्वान् लिपिकार ने किसी जिन के पुत्र होने की संभावना को आकाश - कुसुम की तरह असंभव मानकर 'अजनसुतः' लिख दिया । ऐतिहासिक घटनाचक्र के पर्यवेक्षरण से यह प्रमाणित होता है कि वास्तव में इस श्लोक का मूल पाठ 'बुद्धो नाम्नांजनिसुतः था ।' श्रीमद्भागवत और अन्य पुराणों में प्राचीन इतिहास को सुरक्षित रखने के लिये प्राचीन प्रतापी राजानों का किसी घटनाक्रम के प्रसंग में नामोल्लेख किया गया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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