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________________ ६४२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् का विहार भगवान् का विहार श्रावस्ती के 'कोष्ठक चैत्य' से विहार कर भगवान् महावीर ने जनपद की ओर प्रयाण किया। विचरते हुए प्रभु 'मेढ़ियाग्राम' पहुँचे और ग्राम के बाहर 'सालकोष्ठक चैत्य' में पृथ्वी शिला-पट्ट पर विराजमान हुए। भक्तजन दर्शनश्रवण एवं वंदन करने आये । भगवान् ने धर्म-देशना सुनाई। जिस समय भगवान साल कोष्ठक चैत्य में विराज रहे थे, गोशालक द्वारा प्रक्षिप्त तेजोलेश्या के निमित्त से भगवान के शरीर में असाता का उदय हुआ, जिससे उनको दाह-जन्य अत्यन्त पीड़ा होने लगी। साथ ही रक्तातिसार की बाधा भी हो रही थी। पर वीतराग भगवान इस विकट वेदना में भी शान्तभाव से सब कुछ सहन करते रहे। उनके शरीर की स्थिति देख कर लोग कहने लगे कि गोशालक की तेजोलेश्या से पीड़ित भगवान महावीर छह माह के भीतर ही छद्मस्थभाव में कहीं मृत्यु न प्राप्त कर जायं । उस समय सालकोष्ठक के पास मालुयाकच्छ में भगवान् का एक शिष्य ‘सीहा' मुनि, जो भद्र प्रकृति का था, बेले की तपस्या के साथ ध्यान कर रहा था। ध्यानावस्था में ही उसके मन में यह विचार हा कि मेरे धर्माचार्य को विपुल रोग उत्पन्न हुआ है और वे इसी दशा में कहीं काल कर जायेंगे तो लोग कहेंगे कि ये छमस्थ अवस्था में ही काल कर गये और इस तरह हम सब की हँसी होगी । इस विचार से सीहा अनगार फूट-फूट कर रोने लगा। घट-घट के अन्तर्यामी त्रिकालदर्शी श्रमण भगवान महावीर ने तत्काल निर्ग्रन्थों को बुला कर कहा- “पार्यो ! मेरा अन्तेवासी सीहा अनगार, जो प्रकृति का भद्र है, मालुयाकच्छ में मेरी बाधा-पीड़ा के विचार से तेज स्वर में रुदन कर रहा है, अतः जाकर उसे यहां बुला लायो।" प्रभु के संदेश से श्रमरणनिर्ग्रन्थ मालुयाकच्छ गए और सीहा अनगार को भगवान् द्वारा बुलाये जाने की सूचना दो । सीहा मुनि भी निग्रंथों के साथ भगवान महावीर के पास आये और वन्दना नमस्कार कर उपासना करने लगे। सीहा मुनि को सम्बोधित कर प्रभु ने कहा- “सीहा ! ध्यानान्तरिका में तेरे मन में मेरे अनिष्ट की कल्पना हुई और तुम रोने लगे, क्या यह ठीक है ?" सीहा द्वारा इस तथ्य को स्वीकृत किये जाने पर प्रभु ने कहा- “सीहा ! गोशालक की तेजोलेश्या से पीड़ित हो कर मैं छह महीने के भीतर मत्य प्राप्त करूगा, ऐसी बात नहीं है। मैं सोलह वर्ष तक जिनचर्या से सूहस्ती की तरह और विचरूंगा। अतः हे आर्य ! तुम मेढ़ियाग्राम में "रेवती" गाथापत्नी के घर जाओ और उसके द्वारा मेरे लिये तैयार किया हुआ आहार न लेकर अन्य जो बासी बिजोरा पाक है, वह ले आयो । व्याधि मिटाने के लिये उसका प्रयोजन है।" भगवान् की आज्ञा पा कर सीहा अनगार बहुत प्रसन्न हुए और प्रभु को For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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