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________________ शंका समाधान] भगवान महावीर ६४१ गोशालक के भक्त और स्थविरों ने सोचा-"प्रादेशानुसार यदि नगरी में पैर बांध कर घसीटते हुए निकालेंगे तो अपनी हल्की लगेगी और ऐसा नहीं करने से प्राज्ञा-भंग होगी। ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए ?" उन्होंने एक उपाय निकाला-"हालाहला कुम्हारिन के घर में ही द्वार बन्द कर नगरी और राजमार्ग की रचना करें। उसमें घुमा लेने से आज्ञा-भंग और बदनामी दोनों से ही बच जायेंगे। उन्होंने वैसा ही किया । गोशालक के निर्देशानुसार बंद मकान में शव को घुमा कर फिर नगर में धूम-धाम से शव-यात्रा निकाली और सम्मान पूर्वक उसका अन्तिम संस्कार सम्पन्न किया। शंका समाधान गोशालक के द्वारा समवशरण में तेजोलेश्या-प्रहा के प्रसंग से सहज शंका उत्पन्न होती है कि महावीर ने छद्मस्थ अवस्था में गोशालक की तो तेजोलेश्या से रक्षा की पर समवशरण में गोशालक द्वारा तेजोलेश्या का प्रहार किये जाने पर सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि को अपनी शीत-लेश्या के प्रभाव से क्यों नहीं बचाया ? टीकाकार प्राचार्य ने इस पर स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि महावीर वीतराग होने से निज-पर के भेद और रागद्वेष से रहित थे । केवली होने के कारण उनका व्यवहार निश्चयानुगामी होता था, जबकि छमस्थ अवस्था में व्यवहार से ही निश्चय धोतित होता और उसका अनुमान किया जाता था। सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि का गोशालक के निमित्त से मरण अवश्यंभावी था, ऐसा प्रभु ने जान रखा था। दूसरी बात यह भी है कि केवली राग और प्रमाद रहित होने से लब्धि का प्रयोग नहीं करते, इसलिए वे उस अवसर पर तटस्थ रहे। गोशालक के रक्षण के समय में भगवान् का जीवन किसी एक सूक्ष्म हद तक पूर्णतः रागविहीन और व्यवहार निरपेक्ष जीवन नहीं था। उस समय शरणागत का रक्षण नहीं करना अनुकम्पा का प्रत्यनीकपन होता । गोशालक द्वारा तेजोलेश्या के प्रहार किये जाने के समय में प्रभु पूर्ण वीतराग थे । यही कारण है कि सर्वानुभूति और सुनक्षत्र मुनि पर गोशालक द्वारा प्रहार किये जाने के समय गोशालक को न समझा कर प्रभु ने उससे पीछे बात की। कुछ लोग कहते हैं कि गोशालक पर अनुकम्पा दिखा कर भगवान् ने बड़ी भल की। यदि ऐसा नहीं करते तो कुमत का प्रचार और मुनि-हत्या जैसी अनर्थमाला नहीं बढ़ पाती, किन्तु उनका ऐसा कहना भूल है। सत्पुरुष अनुकम्पाभाव से बिना भेद के हर एक का हित करते हैं। उसका प्रतिफल क्या होगा, यह सौदेबाजी उनमें नहीं होती। वे जीवन भर अप्रमत्तभाव से चलते रहे, उन्होंने कभी कोई पापकर्म एवं प्रमाद नहीं किया, जैसा कि आचारांग सूत्र में स्पष्ट निर्देश है-'छउमत्थोवि परक्कममाणो ण पमायं सइंपि कवित्था।" १ माचा., श्रु. १, मध्ययन ६, उद्देशा ४, गा. १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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