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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [गोशालक की अन्तिम चर्या भगवान महावीर ने निर्ग्रन्थों को आमन्त्रित कर कहा-"पायों! मंखलिपुत्र गोशालक ने जिस तेजोलेश्या का मेरे वध हेतु प्रहार किया था, वह (१) अंग, (२) बंग, (३) मगध, (४) मलय, (५) मालव, (६) अच्छ, (७) वत्स, (८) कौत्स, (8) पाठ, (१०) लाट, (११) वज्र, (१२) मौजि, (१३) काशी, (१४) कोशल, (१५) अबाध और (१६) संभुत्तर इन समस्त देशों को जलाने, नष्ट करने तथा भस्म करने में समर्थ थी । अव वह कुम्भकारापण में कच्चा प्राम चूसता हा यावत ठंडे पानी से शरीर का सिंचन कर रहा है। अपने दोषों को छिपाने के लिए उसने आठ चरम बतलाये हैं, जैसे(१) चरम-पान, (२) चरम-गान, (३) चरम-नाट्य, (४) चरम-अंजलिकर्म, (५) चरम-पुष्कलसंवर्त मेघ, (६) चरम-सेचनक गंध-हस्ती, (७) चरममहाशिलाकंटक संग्राम और [८] चरम तीर्थंकर, अवसर्पिणी काल के अन्तिम तीर्थंकर के रूप में अपना सिद्ध होना।
अपना मृत्यु समय निकट जान कर गोशालक ने आजीवक स्थविरों को बुला कर कहा-"मैं मर जाऊँ तो मेरी देह को सुगन्धित जल से नहलाना, सुगन्धित वस्त्र से देह को पोंछना, चन्दन का लेप करना, बहुमूल्य श्वेत वस्त्र पहिनाना तथा अलंकारों से भूषित करना और शिविका में बिठा कर यह घोषणा करते हुए ले जाना कि चौबीसवें तीर्थंकर गोशालक जिन हुए, सिद्ध हुए आदि ।
किन्तु सातवीं रात्रि में गोशालक का मिथ्यात्व दूर हुआ । उसकी दृष्टि निर्मल और शुद्ध हई। उसको अपने किये पर पश्चात्ताप होने लगा। उसने सोचा-"मैंने जिन नहीं होकर भी अपने को जिन घोषित किया है। श्रमणों का घात और धर्माचार्य का द्वेष करना वास्तव में मेरी भूल है । श्रमण भगवान् महावीर ही वास्तव में सच्चे जिन हैं।"
ऐसा सोच कर उसने स्थविरों को बलाया और कहा-"स्थविरो! मैंने अपने पाप के लिए जो जिन होने की बात कही है, वह मिथ्या है, ऐसा कह कर मैंने तुम लोगों से वंचना की है । अतः अब मेरी मृत्यु के पश्चात् प्रायश्चित्त-स्वरूप मेरे बाएं पैर में डोरी बाँध कर, तुम मेरे मुह पर तीन बार थूकना और श्रावस्ती के राजमार्गों में यह कहते हुए मेरे शव को खींच कर ले जाना कि गोशालक जिन नहीं था, जिन तो महावीर ही हैं।" उसने अपनी इस अन्तिम भावना के पालन के लिए स्थविरों को शपथ दिलायी और सातवीं रात्रि में ही उसकी मृत्यु हो गई।
१ भग. श. १५, पृ० ६८२, सू. ५५४ ।
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