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भगवान् की रोग-मुक्ति]
भगवान् महावीर
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वन्दन कर अचपल एवं असंभ्रान्त भाव से गौतम स्वामी की तरह शाल कोष्ठक चैत्य से निकल कर, मेढ़ियाग्राम के मध्य में होते हए, रेवती के घर पहुंचे। रेवती ने सीहा अनगार को विनयपूर्वक वन्दना की और आने का कारण पूछा। सीहा मुनि ने कहा-"रेवती ! तुम्हारे यहाँ दो औषधियाँ हैं, उनमें से जो तुमने श्रमण भगवान् महावीर के लिये तैयार की हैं, मुझे उससे प्रयोजन नहीं, किन्तु अन्य जो बिजोरापाक है, उसकी आवश्यकता है।"
भगवान् की रोग-मुक्ति सीहा मुनि की बात सुन कर रेवती आश्चर्य-चकित हुई और बोली"मुने ! ऐसा कौनसा ज्ञानी या तपस्वी है, जो मेरे इस गप्त रहस्य को जानता है ?" सोहा अनगार ने कहा-"श्रमण भगवान महावीर, जो चराचर के ज्ञाता व दष्टा हैं, उनसे मैंने यह जाना है।" फिर तो रेवती श्रद्धावनत एवं भाव-विभोर हो भोजनशाला में गई और बिजोरा-पाक लेकर उसने मुनि के पात्र में वह सब पाक बहरा दिया । रेवती के यहाँ से प्राप्त बिजोरापाक रूप आहार के सेवन से भगवान् का शरीर पीड़ारहित हुप्रा और धीरे-धीरे वह पहले की तरह तेजस्वी होकर चमकने लगा। भगवान् के रोग-निवृत्त होने से श्रमण-श्रमणी और श्रावक-श्राविका वर्ग ही नहीं अपितु स्वर्ग के देवों तक को हर्ष हआ। सुरासुर और मानव लोक में सर्वत्र प्रसन्नता की लहर सी दौड़ गई।'
रेवती ने भी इस अत्यन्त विशिष्ट भावपूर्वक दिये गये उत्तम दान से देवगति का आयुबन्ध एवं तीर्थंकर नामकर्भ का उपार्जन कर जीवन सफल किया।
कुतर्कपूर्ण भ्रम “सीहा अणगार को भगवान महावीर ने रेवती के घर पौषधि लाने के लिये भेजा, उसका उल्लेख भगवती सूत्र के शतक १५, उद्देशा १ में इस प्रकार किया गया है :
.... अहं एवं अण्णाइं सोलसवासाइं जिणे सुहत्थी विहरिस्सामि, तं गच्छह णं तमं सीहा । मिढ़ियागामं रणयरं रेवतीए गाहावयणीए गिहे, तत्थ णं रेवतीए गाहावईए मम अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया तेहिं णो अट्ठो अत्थि । से अणे परिवासो मज्जारकड़ए कुक्कुडमंसए तमाहराहि, तेणं अट्ठो । तएणं..."
इस पाठ को लेकर ई० सन् १८८४ से अर्थात लगभग ८७ वर्ष से पाश्चास्य एवं भारतीय विद्वानों में अनेक प्रकार के तर्क-वितर्क चल रहे हैं। जैन परम्परा से अनभिज्ञ कुछ विद्वानों की धारणा कुछ और ही तरह की रही है कि
१ भग. श. १५, सू ५५७ ।
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