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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कुतर्कपूर्ण इस पाठ में भगवान महावीर के मांसभक्षण का संकेत मिलता है। पर वास्तव में ऐसी बात नहीं है। पाठ में आये हए शब्दों का सही अर्थ समझने के लिये हमें प्रसंग और तत्कालीन परिस्थिति में होने वाले शब्द प्रयोगों को लक्ष्य में लेकर ही अर्थ करना होगा। उसके लिये सबसे पहले इस बात को ध्यान में रखना होगा कि रेवती श्रमण भगवान महावीर की परम भक्त श्रमणोपासिका एवं सती जयंती तथा सुश्राविका मगावती की प्रिय सखी थी। अत: मत्स्यमांसादि अभक्ष्य पदार्थों से उसका कोई सम्बन्ध हो ही नहीं सकता। रेवती ने परम उत्कृष्ट भावना से इस औषधि का दान देकर देवायु और महामहिम तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन किया था। भगवती सूत्र के पाठ में आये हुए खास विचारणीय शब्द "कवोयसरीर", "मज्जारकडए कुक्कुडमंसए" शब्द हैं। जिनके लिये भगवती सूत्र के टीकाकार प्राचार्य अभयदेव सरि और दानशेखर सूरि ने क्रमशः कुष्मांड फल और मार्जार नामक वायु की निवृत्ति के लिये बिजोरा (बीजपूरक कटाह) अर्थ किया है । विक्रम संवत् ११२० में अभयदेव ने स्थानांग सूत्र की टीका बनाई। उस टीका में उन्होंने अन्य मत का उल्लेख तक नहीं किया है और उन्होंने स्पष्टतः निश्चित रूप से "कवोयसरीर" का अर्थ कुष्मांडपाक और "मज्जारकडए कुक्कुडमंसए" का अर्थ मार्जार नामक वायु के निवृत्त्यार्थ बीजपूरक कटाह अर्थात् बिजौरापाक किया है। अभयदेव द्वारा की गई स्थानांग सूत्र की व्याख्या में किंचितमात्र ध्वनि तक भी प्रतिध्वनित नहीं होती कि इन शब्दों का अर्थ मांसपरक भी हो सकता है। जैसा कि स्थानांग की टीका के निम्नलिखित अंश से स्पष्ट है: "भगवांश्च स्थविरैस्तमाकार्योक्तवान् हे सिंह ! यत् त्वया व्यकल्पि न तद्भावि, यत इतोऽहं देशोनानि षोडश वर्षाणि केवलिपर्यायं पूरयिष्यामि, ततो गच्छ त्वं नगरमध्ये, तत्र रेवत्यभिधानया गृहपतिपत्न्या मदर्थं द्वे कुष्मांडफलशरीरे उपस्कृते, न च ताभ्यां प्रयोजनम् तथान्यदस्ति तदग्रहे परिवासितं मार्जाराभिधानस्य वायोनिवृत्तिकारकं कुक्कुटमांसकं बीजपूरककटाहमित्यर्थः, तदाहर, तेन नः प्रयोजनमित्येवमुक्तोऽसौ तथैव कृतवान्, "......" स्थांनांग सूत्र की टीका का निर्माण करने के ८ वर्ष पश्चात् अर्थात् वि० सं० ११२८ में अभयदेव सूरि ने भगवती सूत्र की टीका का निर्माण किया। उसमें उन्होंने भगवती सूत्र के पूर्वोक्त मूल पाठ की टीका करते हुए लिखा है : "दुवेकवोया" इत्यादेः श्रूयमाणमेवार्थ केचिन्मन्यन्ते, अन्ये त्वाहुः-कपोतकः पक्षिविशेषस्तद्वद् ये फले वर्णसाधात्ते कपोते, कुष्मांडे ह्रस्वे कपोते कपोतके ते च ते शरीरे वनस्पतिजीवदेहत्वात् कपोतकशरीरे अथवा कपोतकशरीरे इव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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