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________________ भ्रम] भगवान् महावीर ६४५ धसरवर्णसाधादेव कपोतक शरीरे-कुष्मांड फले..."परिमासिए ति परिवासितं ह्यस्तनमित्यर्थः, 'मज्जारकडए' इत्यादेरपि केचित् श्रूयमाणमेवार्थं मन्यन्ते, अन्ये त्वाहुः-मार्जारो वायुविशेषस्तदुपशमनाय कृत-संस्कृतं मार्जारकृतम्, अपरे त्वाहु:मार्जारो विरालिकाभिधानो वनस्पतिविशेषस्तेन कृतं भावितं यत्तत्तथा कि तत् इति ? आह 'कुर्कुटक मांसकं बीजपूरक कटाहम्...।" । भगवती सूत्र अभयदेवकृत टीका, शतक १५, उ० १] इसमें अभयदेव ने अन्य भत का उल्लेख किया है पर उनकी निजी निश्चित मान्यता इन शब्दों के लिये मांसपरक अर्थ वाली किसी भी दशा में नहीं कही जा सकती। अर्थ का अनर्थ करने को कुचेष्टा रखने वाले लोगों को यह बात सदा ध्यान में रखनी चाहिये कि सामान्य जैन साधु का जीवन भो 'श्रमज्झमंसासिणो' विशेषण के अनसार मद्यमांस का त्यागी होता है, तब महावीर के लिये मांसभक्षण की कल्पना ही कैसे की जा सकती है? इसके साथ ही साथ इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को भी सदा ध्यान में रखना होगा कि भगवान् महावीर ने अपनी देशना में नरक गति के कारणों का प्रतिपादन करते हुए मांसाहार को स्पष्ट शब्दों में नरक गति का कारण बताया है।' आचारांग सूत्र में तो श्रमण को यहां तक निर्देश दिया गया है कि भिक्षार्थ जाते समय साधु को यदि यह ज्ञात हो जाय कि अमुक गृहस्थ के घर पर मद्यमांसमय भोजन मिलेगा तो उस घर में जाने का साधु को विचार तक नहीं करना चाहिए। भगवान महावीर की पितज्वर की व्याधि को देखते हए भी मांस अर्थ अनुकूल नहीं पड़ता किन्तु बिजोरे का गिरभाग जो मांस पद से उपलक्षित है, वही हितकर माना गया है । जैसा कि सुश्रूत से भी प्रमाणित होता है १ (क) ठाणांग सूत्र, ठा० ४, उ० ४, सू० ३७३ (ख) गोयमा ! महारंभायाए, महापरिग्गयाए, कुरिणमाहारेणं पंचिन्दियवहेणं..... नेरइयाउयकम्मा-सरीर जाव पयोग बंधे। [भगवती सू०, शतक ८, उ० ६, सू० ३५०] (ग) चउहि ठाणेहिं जीवा ऐरइयत्ताए कम्म पकरेंति......"कुरिणमाहारेणं । [प्रौपपातिक सूत्र, सू० ५६] २ से भिक्खू वा. जाव समाणे से जं पुण जाणेज्जा मंसाई व मच्छाई मंस खलं व मच्छ खलं वा मच्छो खलं नो अभिसंधारिज्ज गमणाए ......"[प्राचारांग, श्रु. २, अ. १, उ. ४, सू. २४५] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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