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________________ ६४६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [कुतर्कपूर्ण लघ्वम्लं दीपनं हृद्यं मातुलुगमुदाहृतम् । त्वक् तिक्ता दुर्जरा तस्य वातकृमिकफापहा ।। स्वादु शीतं गुरु स्निग्धं मांसं मारुतपित्तजित् । मेघ्यं शूलानिलदिकफारोचक नाशनम ।। निघण्टु में भी बिजौरा के गुण इस प्रकार बताये गये हैं : रक्तपित्तहरं कण्ठजिह्वाहृदयशोधनम् । श्वासकासारुचिहरं हृद्यं तृष्णाहरं स्मृतम् ।।१३२।। बीजपूरो परः प्रोक्तो मधुरो मधुकर्कटी। मधुकर्कटिका स्वादी रोचनी शीतला गुरुः ।।१३३।। रक्तपित्तक्षयश्वासकासंहिक्काभ्रमापहा ।।१३४।। [भावप्रकाश निघण्टु वैजयन्ती कोष में बीजपूरक को मधुकुक्कुटी के नाम से उल्लिखित किया गया है । यथा : देविकायां महाशल्का दूष्यांगी मधुकुक्कुटी। अथात्ममूला मातुलुगी पूति पुष्पी वृकाम्लिका । 1 [वैजयन्ती कोष, भूमिकाण्ड, वनाध्याय, श्लोक ३३-३४] पित्तज्वर के उपशमन में बीजपूरक ही हितावह होता है, इसलिए यहाँ पर कुक्कुडमंस शब्द से मधुकुक्कुटी अर्थात् बिजौरे का गिर ही समझना चाहिए। जिस संस्कृति में जीवन निर्वाह के लिए अत्यावश्यक फल, मूल एवं सचित्त जल का भी भक्ष्याभक्ष्य रूप से विचार किया गया है, वहां पर स्वयं उस संस्कृति के प्रणेता द्वारा मांस जैसे महारम्भी पदार्थ का ग्रहण, कभी मानने योग्य नहीं हो सकता। जिन भगवान महावीर ने कौशाम्बी पधारते समय प्राणान्त संकट की स्थिति में भी क्षधा एवं तषा से पीड़त मुनिवर्ग को वन-प्रदेश में सहज अचित्त जल को सम्मुख देख कर भी पीने की अनुमति नहीं दी, वे परम दयालु महामुनि स्वयं की देह-रक्षा के लिए मांस जैसे अग्राह्य पदार्थ का उपयोग करें, यह कभी बद्धिगम्य नहीं हो सकता । अतः बुद्धिमान पाठकों को शब्दों के बाहरी कलेवर की ओर दृष्टि न रख कर उनके प्रसंगानुकूल सही अर्थ, अर्थात बिजोरापाक को ही प्रमाणभूत मानना चाहिए । साधु को किस प्रकार का प्राहार त्याज्य है, इस सम्बन्ध में प्राचारांग सूत्र के उदाहरणपरक मूल पाठ 'बहु अट्ठिएण मंसेण वा मच्छेण वा बहुकण्टएण' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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