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________________ अरिष्टनेमि का प्रलौकिक बल ] भगवान् श्री प्ररिष्टनेमि कुमार अरिष्टनेमि को कौतुक से शंख की ओर हाथ बढ़ाते देख चारुकृष्ण नामक प्रायुधशाला - रक्षक ने कुमार को प्रणाम कर कहा - " यद्यपि श्राप श्रीकृष्ण के भ्राता हैं और निस्संदेह प्रबल पराक्रमी भी हैं, फिर भी इस शंख को पूरना तो दूर रहा, आप इसको उठाने में भी समर्थ नहीं होंगे। इसको तो केवल श्रीकृष्ण ही उठा और बजा सकते हैं, अतः प्राप इसे उठाने का वृथा प्रयास न कीजिये ।" रक्षक पुरुष की बात सुनकर कुमार अरिष्टनेमि ने मुस्कुराते हुए अनायास ही शंख को उठा अधर-पल्लवों के पास ले जाकर पूर (बजा) दिया । ३६३ प्रथम तो कुमार अरिष्टनेमि तीर्थंकर होने के कारण अनन्त शक्ति सम्पन्न थे, फिर पूर्ण ब्रह्मचारी थे, अतः उनके द्वारा पूरे गये पांचजन्य की ध्वनि से लवण समुद्र में भीषण उत्ताल तरंगें उठीं और उछल उछल कर बड़े वेग के साथ द्वारिका के प्राकार से टकराने लगीं । द्वारिका के चारों ओर के नगाधिराजों के शिखर और द्वारिका के समग्र भव्य भवन थर्रा उठे । श्रौरों का तो ठिकाना ही क्या, स्वयं श्रीकृष्ण और बलराम भी क्षुब्ध हो उठे । खम्भों में बंधे हाथी खम्भों को उखाड़, लौह शृंखलाओं को तोड़ चिघाड़ते हुए इधर-उधर वेग से भागने लगे, द्वारिका के नागरिक उस शंख के प्रतिघोर निर्घोष से मूच्छित हो गये और शंखनिनाद के प्रत्यन्त सन्निकट होने के कारण शस्त्रागार के रक्षक तो मृतप्राय ही हो गये । श्रीकृष्ण साश्चर्य सोचने लगे – “इस प्रकार इतने अपरिमित वेग से शंख बजाने वाला कौन हो सकता है ? क्या कोई चक्रवर्ती प्रकट हो गया है। अथवा इन्द्र पृथ्वी पर भ्राया है ? मेरे शंख के निर्घोष से तो सामान्य भूपति ही भौंचक्के होते हैं, पर शंख के इस अद्भुत निर्घोष से तो मैं स्वयं मोर बलराम भी क्षुब्ध हो गये ।" थोड़ी ही देर में श्रायुधशाला के रक्षक ने वहाँ ग्राकर कृष्ण से निवेदन किया - "देव ! कुतूहलवश कुमार प्ररिष्टनेमि ने प्रायुधशाला में पांचजन्य शंख बजाया है । यह सुनकर कृष्ण बहुत विस्मित हुए, पर उन्हें उस बात पर विश्वास नहीं हुआ । उसी समय कुमार अरिष्टनेमि वहाँ भ्रा पहुँचे । कृष्ण ने अतिशय प्राश्चर्य, स्नेह एवं प्रादरयुक्त मनःस्थिति में प्ररिष्टनेमि को अपने श्रद्ध सिंहासन पर पास बैठाया और बड़े दुलार से पूछा - "प्रिय भ्रात ! क्या तुमने पांचजन्य शंख बजाया था, जिसके कारण कि सारा वातावरण प्रभी तक विक्षुब्ध हो रहा है ?" कुमार अरिष्टनेमि ने सहज स्वर में उत्तर दिया- "हाँ भैया ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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