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________________ ५०२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [परिनिर्वाण भगवान पार्श्वनाथ के शासन में एक हजार साधुओं और दो हजार साध्वियों ने सिद्धिलाभ किया । यह तो मात्र व्रतधारियों का ही परिवार है। इनके अतिरिक्त करोड़ों नर-नारी सम्यग्दृष्टि बनकर प्रभु के भक्त बने । परिनिर्वाण कुछ कम सत्तर वर्ष तक केवलचर्या से विचर कर जब भगवान पार्श्वनाथ ने अपना प्रायुकाल निकट समझा, तब वे वाराणसी से प्रामलकप्पा होकर सम्मेतशिखर पधारे और तेतीस साधुओं के साथ एक मास का अनशन कर उन्होंने शुक्लध्यान के तृतीय और चतुर्थ चरण का आरोहण किया। फिर प्रभु ने श्रावण शुक्ला अष्टमी को विशाखा नक्षत्र में चन्द्र का योग होने पर योग-मुद्रा में खड़े ध्यानस्थ ासन से वेदनीय आदि कर्मों का क्षय किया और वे सिद्ध-बुद्धमुक्त हुए। श्रमरण-परम्परा और पार्व श्रमण-परम्परा भारतवर्ष की बहत प्राचीन धार्मिक परम्परा है। मन और इन्द्रिय से तप करने वाले श्रमण कहलाते हैं। जैन आगमों एवं ग्रन्थों में श्रमण पाँच प्रकार के बतलाये हैं, यथा-(१) निर्ग्रन्थ. (२) शाक्य, (३) तापस, (४) गेरुपा और (५) आजीवक । इनमें जैन श्रमणों को निर्ग्रन्थ श्रमरण कहा गया है। सुगतशिष्य-बौद्धों को शाक्य और जटाधारी वनवासी पाखंडियों को तापस कहा गया है । गेरुए वस्त्र वाले त्रिदण्डी को गेरुक या परिव्राजक तथा गोशालकमती को आजीवक कहा गया है । ये पांचों श्रमण रूप से लोक में प्रसिद्ध हुए हैं। श्रमण परम्परा की नींव ऋषभदेव के समय में ही डाली गई थी, जिसका कि श्रीमद्भागवत आदि ग्रन्थों में भी उल्लेख है । २ वृहदारण्यक उपनिषद् एवं वाल्मीकि रामायण में भी श्रमण शब्द का प्रयोग हुआ है। त्रिपिटक साहित्य में भी "निर्ग्रन्थ" शब्द का स्थान-स्थान पर उल्लेख पाया है। डॉ० हरमन जेकोबी ने त्रिपिटक साहित्य के आधार पर यह प्रमाणित किया है कि बुद्ध के पूर्व निर्ग्रन्थ १ निग्गंथा, सक्क, तावस, गेरुय, प्राजीव पंचहा समणा । तम्मिय निग्गंथा ते, जे जिणसासणभवा मुरिणणो ॥३८।। सक्काय सूगय सिस्सा, जे जडिला ते उ तावसा गीता। जे पाउरत्तवत्या, तिदंडिरयो गेरुया तेज ॥३६।। जे गोसालकमयमणुसरंति भन्नति तेउ पाजीवा । समणत्तागण भुवणे, पंच वि पत्ता पसिद्धिमिमे ।।४०।। [प्रवचन मारोद्धार, द्वार ६४] 2 The Sacred book of the East Vol. XXII, Introduction page 24. Jccoby. ३ बालकाण्ड, सर्ग १४, श्लोक २२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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