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श्रमण परम्परा और पार्श्व ]
भगवान् श्री पार्श्वनाथ
सम्प्रदाय विद्यमान था । " अंगुत्तर निकाय" में " बप्प" नाम के शाक्य को निर्ग्रन्थ श्रावक बतलाया है, जो कि महात्मा बुद्ध का चाचा था। इससे सिद्ध होता है कि बुद्ध से पहले या उसके बाल्यकाल में शाक्य देश में निर्ग्रन्थ धर्म का प्रचार था । भगवान् महावीर बुद्ध के समकालीन थे । उनको निर्ग्रन्थ धर्म का प्रवर्तक मानना युक्तिसंगत नहीं लगता । अतः यह प्रमाणित होता है कि इनके पूर्ववर्ती तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ ही श्रमण परम्परा के प्रर्वतक थे ।
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उपर्युक्त आधार से आधुनिक इतिहासकार पार्श्वनाथ को निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के प्रवर्तक मानते हैं । वास्तव में निर्ग्रन्थ धर्म का प्रवर्तन पार्श्वनाथ से भी पहले का है । पार्श्वनाथ को जैन धर्म का प्रवर्तक मानने का प्रतिवाद करते हुए डॉ० हर्मन जेकोबी ने लिखा है।
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"यह प्रमाणित करने के लिए कोई आधार नहीं है कि पार्श्वनाथ जैन धर्म के संस्थापक थे । जैन परम्परा ऋषभ को प्रथम तीर्थंकर ( प्रादि-संस्थापक) मानने में सर्वसम्मति से एकमत है । इस पुष्ट परम्परा में कुछ ऐतिहासिकता भी हो सकती है, जो उन्हें (ऋषभ को ) प्रथम तीर्थंकर मान्य करती है ।" "
डॉ० राधाकृष्णन् के अनुसार यह असंदिग्ध रूप से कहा जा सकता है कि जैन धर्म का अस्तित्व वर्द्ध मान और पार्श्वनाथ से बहुत पहले भी था ।
भगवान् पार्श्वनाथ का व्यापक प्रभाव
भगवान् पार्श्वनाथ की वाणी में करुरणा मधुरता और शान्ति की त्रिवेणी एक साथ प्रवाहित होती थी । परिणामतः जन-जन के मन पर उनकी वारणी का मंगलकारी प्रभाव पडा, जिससे हजारों ही नहीं, लाखों लोग उनके अनन्य भक्त बन गये ।
पार्श्वनाथ के कार्यकाल में तापस परम्परा का प्राबल्य था । लोग तप के नाम पर जो अज्ञान-कष्ट चला रहे थे, प्रभु के उपदेश से उसका प्रभाव कम पड़ गया । अधिक संख्या में लोगों ने आपके विवेकयुक्त तप से नवप्रेरणा प्राप्त की । आपके ज्ञान-वैराग्यपूर्ण उपदेश से तप का सही रूप निखर प्राया ।
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'पिप्पलाद' जो उस समय का एक मान्य वैदिक ऋषि था, उसके उपदेशों पर भी आपके उपदेश की प्रतिच्छाया स्पष्ट रूप से झलकती है । उसका कहना
1 Indian Antigwary, Vol. IX, page 163 :
But there is nothing to prove that Parsva was a founder of Jainism. Jain tradition is unanimous in making Rishabh, the first Tirthankara, as the founder. There may be some Historical tradition, which makes him the first Tirthankara.
2 Indian Philosophy, Vol. I, Page 281. Radhakrishnan.
3 Cambridge History of India, part I, page 180.
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