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________________ ५०४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् पार्श्वनाथ था कि प्राण या चेतना जब शरीर से पृथक् हो जाती है, तब वह शरीर नष्ट हो जाता है । वह निश्चित रूप से भगवान् पार्श्वनाथ के, 'पुद्गलमय शरीर से जीव के पृथक होने पर विघटन' इस सिद्धान्त की अनुकृति है । 'पिप्पलाद' की नवीन दृष्टि से निकले हुए ईश्वरवाद से प्रमाणित होता है कि उनकी विचारधारा पर पार्श्व का स्पष्ट प्रभाव है। प्रख्यात ब्राह्मण ऋषि 'भारद्वाज', जिनका अस्तित्व बौद्ध धर्म से पूर्व है, पार्श्वनाथ-काल में एक स्वतन्त्र मण्डक संप्रदाय के नेता थे।' बौद्धों के अंगत्तर निकाय में उनके मत की गणना मुण्डक श्रावक के नाम से की गई है। जैन 'राजवात्तिक' ग्रन्थ में उन्हें क्रियावादी आस्तिक के रूप में बताया गया है । मुण्डक मत के लोग वन में रहने वाले, पशु-यज्ञ करने वाले तापसों तथा गृहस्थवित्रों से अपने आपको पृथक् दिखाने के लिए सिर मुडा कर भिक्षावृत्ति से अपना उदर-पोषणं करते थे, किन्तु वेद से उनका विरोध नहीं था। उनके इस मत पर पार्श्वनाथ के धर्मोपदेश का प्रभाव दिखाई देता है । यही कारण है कि एक विद्वान ने उसकी परिगणना जैन सम्प्रदाय के अन्तर्गत की है, पर उनकी जैन सम्प्रदाय में परिगणना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होती। ____ नचिकेता, जो कि उपनिषद्कालीन एक वैदिक ऋषि थे, उनके विचारों पर भी पार्श्वनाथ की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है । वे भारद्वाज के समकालीन थे तथा ज्ञान-यज्ञ को मानते थे। उनकी मान्यता के मुख्य अंग थे :- इन्द्रियनिग्रह, ध्यानवृद्धि, प्रात्मा के अनीश्वर स्वरूप का चिन्तन तथा शरीर और प्रात्मा का पृथक् बोध । इसी तरह प्रबुद्ध कात्यायन, जो कि महात्मा बुद्ध से पूर्व हुए थे तथा जाति से ब्राह्मण थे, उनको विचारधारा पर भी पार्श्व के मन्तव्यों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । वे शीत जल में जीव मान कर उसके उपयोग को धर्मविरुद्ध मानते थे, जो पार्श्वनाथ की श्रमण-परम्परा से प्राप्त है। उनकी कुछ अन्य मान्यताएँ भी पार्श्वनाथ की मान्यताओं से मेल खाती हैं। 'अजितकेशकम्बल' भी पार्श्व-प्रभाव से अछूते दिखाई नहीं देते । यद्यपि उन्होंने पार्श्व के सिद्धान्त को विकृत रूप से प्रकट किया था, फिर भी वे वैदिक क्रियाकाण्ड के कट्टर विरोधी थे। __ भारत की तो बात ही क्या, इससे बाहर के देशों पर भी पावं के प्रभाव की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। ई. पू. ५८० में उत्पन्न यूनानी दार्शनिक | Bilongs of the Boudha, Part II, page 22. २ बातरशनाहा.......... ३ धर्मान्दर्शयितुकामो....... ४ वृहदारण्यकोपनिषद्, ४॥३॥२२ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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