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________________ का व्यापक प्रभाव] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ५०५ पाइथोगोरस, जो स्वयं महावीर और बुद्ध के समकालीन थे, जीवात्मा के पुनर्जन्म तथा कर्म-सिद्धान्त में विश्वास करते थे । इतना ही नहीं मांसप्रेमी जातियों को भी वे सभी प्रकार की हिंसा तथा मांसाहार से विरत रहने का उपदेश देते थे। यहां तक कि कतिपय वनस्पतियों को भी वे धार्मिक दृष्टि से अभक्ष्य मानते थे । वे पूर्वजन्म के वृत्तान्त को भी स्मति से बताने का दावा करते थे और आत्मा की तुलना में देह को हेय और नश्वर समझते थे। उपयुक्त विचारों का बौद्ध और ब्राह्मण धर्म से कोई सादृश्य नहीं, जबकि जैन धर्म के साथ उनका अद्भुत सादृश्य है । ये मान्यताएँ उस काल में प्रचलित थी, जबकि महावीर और बद्ध अपने-अपने धर्मों का प्रचलन प्रारम्भ ही कर रहे थे । अतः पाइथोगोरस प्रादि दार्शनिक पार्श्वनाथ के उपदेशों से किसी न किसी तरह प्रभावित रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है । का प्रभाव बद्ध के जीवन-दर्शन से यह बात साफ झलकती है कि उन पर भगवान् पार्श्व के प्राचार-विचार का गहरा प्रभाव पड़ा था । शाक्य देश, जो कि नेपाल की उपत्यका में है और जहाँ कि बद्ध का जन्म हया था, वहाँ पाश्र्वानयायी संतों का आना-जाना बना रहता था। और तो क्या, उनके राजघराने पर भी पार्श्वकी वाणी का स्पष्ट प्रभाव था। बुद्ध के चाचा भी पार्श्व-मतावलम्बी थे । इन सबसे सिद्ध होता है कि बचपन में बद्ध के कोमल अन्तःकरण में संसार की प्रसारता एवं त्याग-वैराग्य के जो अंकुर जमे, उनके बीज भगवान् पार्श्वनाथ के उपदेश रहे हों तो कोई आश्चर्य नहीं। गह-त्याग के पश्चात् बुद्ध की चर्या पर जब दृष्टिपात करते हैं तो यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि वे ज्ञानार्जन के लिए विभिन्न स्थानों पर घूमते रहे, किन्तु उन्हें प्रात्मबोध या सच्ची शान्ति कहीं प्राप्त नहीं हुई। जब वे उद्रक-राम पुत्र का प्राश्रम छोड़ कर राजगृह प्राए नो वहाँ के निर्ग्रन्थ श्रमरण सम्प्रदाय में उन्हें निग्रन्थों का चातुर्याम संवर अत्यधिक पसन्द माया। क्योंकि आगे चल कर उन्होंने जिस आर्य अष्टांगिक मार्ग का प्राविष्कार किया, उसमें चातुर्याम का समावेश किया गया है।' प्रागे चल कर केवल चार यामों से ही काम चलने वाला नहीं, ऐसा जान कर उन्होंने उसमें समाधि एवं प्रज्ञा को भी जोड़ दिया। शीलस्कन्ध बद्ध धर्म की नींव है। शील के बिना अध्यात्म-मार्ग में प्रगति पाना असम्भव है। पार्श्वनाथ १ "पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म" पृ० २८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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