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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ बुद्ध पर पार्श्व मत का प्रभाव के चातुर्याम का सनिवेश शीलस्कन्ध में किया गया है और उस ही की रक्षा एवं अभिवृद्धि के लिए समाधित प्रज्ञा की आवश्यकता है ।' ५०६ प्राकं सुत्त (मज्झिम निकाय) पढ़ने से पता चलता है कि बुद्ध ने शील को कितना महत्त्व दिया है । अतः यह स्पष्ट है कि बुद्ध ने पार्श्वनाथ के चारों यामों को पूर्णतया स्वीकार किया था । उन्होंने उन यामों में नालारकलाम की समाधि और अपनी खोजी हुई चार श्रार्य-सत्यरूपी प्रज्ञा को जोड़ दिया और उन यामों को तपश्चर्या एवं श्रात्मवाद से पृथक् कर दिया । बुद्ध ने तपश्चर्या का त्याग कर दिया, जो कि उन दिनों साधु वर्ग में अत्यधिक प्रचलित थी, अतः लोग उन्हें और उनके शिष्यों को विलासी (मौजी) कहते थे । इस सम्बन्ध में 'दीर्घनिकाय' के पासादिक सुत्त में भगवान् बुद्ध चुन्द से कहते हैं - " अपन सब पर तपश्चर्या की कमी से आक्षेप रूप में प्राने वाले मौजों के बारे में तुम प्रक्षेप करने वाले लोगों से कहना - "हिंसा, स्तेय, सत्य और भोगोपभोग ( काम सुखल्लिकानुयोग ) - ये चार मौजें हीन गंवार, पृथक् जनसेवित, अनार्य एवं अनर्थकारी हैं - अर्थात् इनके विपरीत चतुर्याम पालन ही सच्ची तपस्या है और हम सब इस प्रार्य सिद्धान्त को अच्छी तरह समझते और पालते हैं ।" कहा जाता है कि बुद्ध के न सिर्फ विचारों पर ही जैन धर्म की छाप पड़ी थी बल्कि संन्यास धारण के बाद छः वर्षों तक जैन श्रमरण के रूप में उन्होंने जीवन व्यतीत किया था । 3 ' दर्शनसार' के रचनाकार आचार्य देवसेन ने अपनी इस कृति में लिखा है कि श्री पार्श्वनाथ भगवान् के तीर्थ में सरयू नदी के तटवर्ती पलाश नामक नगर में पिहिताश्रव साधु का शिष्य बुद्धकीर्ति मुनि हुना जो बहुश्रुत या बड़ा भारी शास्त्रज्ञ था । परन्तु मछलियों का प्रहार करने से बह ग्रहण की हुई दीक्षा से भ्रष्ट हो गया और रक्ताम्बर ( लाल वस्त्र ) धारण करके उसने एकान्त मत की प्रवृत्ति की - "फल, दही, दूध, शक्कर श्रादि के समान माँस में भी जीव नहीं है, अतएव उसकी इच्छा करने और भक्षरण करने में कोई पाप नहीं है । जिस प्रकार जल एक द्रव द्रव्य अर्थात् तरल या बहने वाला पदार्थ है, उसी प्रकार शराब है, वह त्याज्य नहीं है ।" इस प्रकार की घोषणा से उसने संसार में पापकर्म की परिपाटी चलाई। एक पाप करता है और दूसरा उसका फल भोगता १ पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म, पृ० ३० । २ पार्श्वनाथ का चातुर्याम धर्म, पृ० ३१ । ३ जैन सूत्र (एस.बी. ई.), भाग १, पृ० ३६ ४१ और रत्नकरण्डक श्रावकाचार १।१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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