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पार्श्वभक्त राजन्यवर्ग] भगवान् श्री पार्श्वनाथ है, ऐसे सिद्धान्त की कल्पना कर लोगों को अपना अनुयायी बना कर वह मृत्यु को प्राप्त हुआ।
पार्श्वभक्त राजन्यवर्ग
पार्श्वनाथ की वाणी का ऐसा प्रभाव था कि उससे बड़े-बड़े राजा महाराजा भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके । व्रात्य क्षत्रिय सब जैन धर्म के ही उपासक थे । पार्श्वनाथ के समय में कई ऐसे राज्य थे, जिनमें पार्श्वनाथ ही इष्टदेव माने जाते थे।
डॉ. ज्योति प्रसाद के अनुसार उनके समय में पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में अनेक प्रबल नाग-सत्ताएँ राजतन्त्रों अथवा गणतन्त्रों के रूप में उदित हो चुकी थीं और उन लोगों के इष्टदेव पार्श्वनाथ ही रहे प्रतीत होते हैं। उनके अतिरिक्त मध्य एवं पूर्वी देशों के अधिकांश व्रात्य क्षत्रिय भी पार्श्व के उपासक थे । लिच्छवी प्रादि आठ कुलों में विभाजित वैशाली और विदेह के शक्तिशाली वज्जिगण में तो पार्श्व का धर्म हो लोकप्रिय धर्म था। कलिंग के शक्तिशाली राजा "करकंड" जो कि एक ऐतिहासिक नरेश थे, तीर्थंकर पार्श्वनाथ के ही तीर्थ में उत्पन्न हुए थे और उस युग के उनके उपासक आदर्श नरेश थे । राजपाट का त्याग कर जैन मुनि के रूप में उन्होंने तपस्या की और सद्गति प्राप्त की, ऐसा उल्लेख है। इनके अतिरिक्त पांचाल नरेश दुर्मुख या द्विमुख, विदर्भ नरेश भीम और गान्धार नरेश नागजित या नागाति भी तीर्थंकर पार्श्व के समसामयिक नरेश थे।
भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य ज्योतिर्मण्डल में निरयावलिका सूत्र के पुष्पिता नामक तृतीय वर्ग के प्रथम तथा द्वितीय १ सिरि पासणाहतित्थे, सरयूतीरे पलास पयरत्यो।
पिहियासवस्स सिस्सो महासुबो बुड्ढकित्तिमुणी ।।६।। तिमिपूरणासणेहिं अहिगय पवज्जापो परिभट्टो।। रतंबरं परित्ता पट्टियं तेरण एवं तं ॥७॥ मंसस्स पत्थि जीवो जहा फले दहिय, दुद, सक्करए । तम्हा तं वंछित्ता तं भक्खंतो ण पाविट्ठो ॥६॥ मज्जं ण वज्जणिज्ज दवदव्वं जह जलं तहा एदं । इदिलोए घोसित्ता पवट्टियं सम्वसावज्जं ॥६॥ प्रष्णो करेदि कम्मं प्रष्णो सं मुजदीदि सिद्धतं । परिकप्पिकरण पूणं वसिकिच्चा रिणरयमुववष्णो ॥१०॥ दर्शनसार । २ भारतीय इतिहास में जैन धर्म का योगदान ।
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