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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् पार्श्वनाथ के अध्ययनों में क्रमशः ज्योतिषियों के इन्द्र, चन्द्र और सूर्य का तथा तृतीय अध्ययन में शुक्र महाग्रह का वर्णन है, जो इस प्रकार है : एक समय जब भगवान् महावीर राजगृह नगर के गुणशिलक नामक उद्यान में पधारे हए थे, उस समय ज्योतिष्चक्र का इन्द्र 'चन्द्र' भी प्रभुदर्शन के लिए समवसरण में उपस्थित हा । प्रभु को वन्दन करने के पश्चात् उसने प्रभुभक्ति से प्रानन्दविभोर हो जिन-शासन की प्रभावना हेतु समवसरण में उपस्थित चतुर्विध-संघ एवं अपार जनसमूह के समक्ष अपनी वैक्रियशक्ति से अगणित देवदेवी समूहों को प्रकट कर बड़े मनोहारी, अत्यन्त सुन्दर एवं अत्यद्भुत अनेक दृश्य प्रस्तुत किये । अलौकिक नटराज के रूप में चन्द्र द्वारा प्रदर्शित आश्चर्यजनक दृश्यों को देख कर परिषद् चकित हो गई। चन्द्र के अपने स्थान को लौट जाने के अनन्तर गौतम गणधर ने प्रभ से पूछा- "भगवन् ! ये चन्द्रदेव पूर्वजन्म में कौन थे? इस प्रकार की ऋद्धि इन्हें किस कारण मिली है ?" भगवान महावीर ने फरमाया-"पूर्वकाल में श्रावस्ती नगरी का निवासी अंगति नाम का एक सुसमद्ध, उदार. यशस्वी-राज्य-प्रजा एवं समाज द्वारा सम्मानित गाथापति था।" "किसी समय भगवान पार्श्वनाथ का श्रावस्ती के कोष्ठक चैत्य में शुभागमन हुा । विशाल जनसमूह के साथ अंगति गाथापति भी भगवान् पाश्वनाथ के समवसरण में पहुँचा और प्रभु के उपदेशामृत से प्राप्यायित एवं संसार से विरक्त हो प्रभु की चरणशरण में श्रमण बन गया।" "अंगति प्रणगार ने स्थविरों के पास एकादश अंगों का अध्ययन कर कठोर तपश्चरण किया । उसने अनेक चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम, दशम, द्वादश, मासाई एवं मास क्षमण आदि उग्र तपस्याओं से अपनी प्रात्मा को भावित किया ।" "संयम के मूल गणों का उसने पूर्ण रूपेण पालन किया पर कभी बयालीस दोषों में से किसी दोषसहित पाहार-पानी का ग्रहण कर लेना, ईर्या प्रादि समितियों की आराधना में कभी प्रमाद कर बैठना, अभिग्रह ग्रहण कर लेने पर उसका पूर्ण रूप से पालन न करना, शरीर चरण आदि का बार-बार प्रक्षालन करना इत्यादि संयम के उत्तर गुरणों की विराधना के कारण अंगति प्रणगार विराधित-चरित्र वाला बन गया।" "उसने संयम के उत्तर गुणों के अतिचारों की आलोचना नहीं की और अन्त में पन्द्रह दिन के संथारे से प्रायु पूर्ण होने पर वह अंगति प्रपगार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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