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शिष्य ज्योतिर्मण्डल में] भगवान् श्री पार्श्वनाथ ज्योतिषियों का इन्द्र अर्थात् एक पल्योपम और एक लाख वर्ष की स्थिति वाला चन्द्रदेव बना । तप और संयम से प्रभाव से उन्हें यह ऋद्धि मिली है।"
गणधर गौतम ने पुनः प्रश्न किया-“भगवन् ! अपनी देव-आयु पूर्ण होने पर चन्द्र कहाँ जायेंगे ?"
भगवान् महावीर ने कहा-"गौतम ! यह चन्द्रदेव आयुष्यपूर्ण होने पर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध, बद्ध एवं मुक्त होगा।"
इसी प्रकार उपयंक्त सत्र के द्वितीय अध्ययन में ज्योतिर्मण्डल के इन्द्र सूर्य और उनके पूर्वभव का वर्णन किया गया है कि राजगृह नगर के गुण शिलक चैत्य में भगवान महावीर के पधारने पर सूर्य भी प्रभु के समवसरण में रपस्थित हुप्रा।
चन्द्र की तरह सूर्य ने भी प्रभ-वन्दन के पश्चात परिषद के समक्ष वैत्रियशक्ति के अद्भुत चमत्कार प्रदर्शित किये और अपने स्थान को लौट गया।
गौतम गणधर द्वारा सूर्य के पूर्वभव का वृत्तान्त पूरने पर भगवान् महावीर ने फरमाया कि श्रावस्ती नगरी का सुप्रतिष्ठ नामक गाथापति भी अंगति गाथापति के ही समान समद्धिशाली, उदार, राज्य तथा प्रजा द्वारा सम्मानित एवं कीर्तिशाली था।
सुप्रतिष्ठ गाथापति भी भगवान पार्श्वनाथ के थावरती-आगमन पर धर्मदेशना सनने गया और संसार से विरक्त हो प्रभ-चरणों में दीक्षित हो गया। उसने भी अंगति की ही तरह उग्र तपस्याएँ की, संयम के मूल गरगों का पूर्णरूपेण पालन किया, संयम के उत्तरगणों की विराधना की और अन्त में वह संयम के अतिचारों की आलोचना किये बिना ही संलेखनापूर्वक काल कर सूर्यदेव बना।
देवायुष्य पूर्ण होने पर वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म ग्रहण कर तप-संयम . की साधना से सिद्धि प्राप्त करेगा।
श्रमणोपासक सोमिल निरयावलिका सूत्र के तृतीय वर्ग के तीसरे अध्ययन में शुक्र महाग्रह का निम्नलिखित कथानक दिया हुआ है
"श्रमण भगवान महावीर एक बार राजगह नगर के गणशिलक उद्यान में पधारे । प्रभु के आगमन की सूचना पाकर नर-नारियों का विशाल समूह बड़े हर्षोल्लास के साथ भगवान् के समवसरण में पहुँचा।
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