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________________ ५८८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास क का दासी के साथ हंसी-मजाक करने लगा। दासी ने गांव में जाकर मुखिया से शिकायत की और इसके परिणामस्वरूप मुखिया के पुत्र पुरुषसिंह द्वारा गोशालक पीटा गया। __ कालाय सन्निवेश से प्रभु 'पत्तकालय' पधारे । वहाँ भी एक शून्य स्थान देख कर भगवान् ध्यानारूढ़ हो गये । गोशालक वहाँ पर भी अपनी विकृत .. भावना और चंचलता के कारण जनसमुदाय के क्रोध का शिकार बना। गोशालक का शाप-प्रदान 'पत्तकालय' से भगवान् 'कुमारक सन्निवेश' पधारे।' वहाँ चंपगरमरणीय नामक उद्यान में ध्यानावस्थित हो गये । वहाँ के कूपनाथ नामक कुम्भकार की शाला में पार्श्वनाथ के संतानीय प्राचार्य मुनिचन्द्र अपने शिष्यों के संग ठहरे हुए थे। उन्होंने अपने एक शिष्य को गच्छ का मुखिया बना कर स्वयं जिनकल्प स्वीकार कर रखा था। गोशालक ने भगवान् को भिक्षा के लिए चलने को कहा किन्तु प्रभु की ओर से सिद्धार्थ ने उत्तर दिया कि आज इन्हें नहीं जाना है। ___ गोशालक अकेला भिक्षार्थ गाँव में गया और वहाँ उसने रंग-बिरंगे वस्त्र पहने पाव-परम्परा के साधुओं को देखा । उसने उनसे पूछा- "तुम सब कोन हो?" उन्होंने कहा-"हम सब पार्श्व परम्परानुयायी श्रमरण निर्ग्रन्थ हैं।" इस पर गोशालक ने कहा-“तुम सब कैसे निर्ग्रन्थ हो ? इतने सारे रंग-बिरंगे वस्त्र और पात्र रख कर भी अपने को निर्ग्रन्थ कहते हो । सच्चे निर्ग्रन्थ तो मेरे धर्माचार्य हैं, जो वस्त्र व पात्र से रहित हैं और त्याग-तप के साक्षात् रूप हैं । पार्श्व संतानीय ने कहा-"जैसा तू, वैसे ही तेरे धर्माचार्य भी, स्वयंगृहीतलिंग होंगे।"२ इस पर गोशालक ऋद्ध होकर बोला-"अरे! मेरे धर्माचार्य की तुम निन्दा करते हो । यदि मेरे धर्माचार्य के दिव्य तप और तेज का प्रभाव है तो तुम्हारा उपाश्रय जल जाय ।" यह सुन कर पापित्यों ने कहा--"तुम्हारे जैसों के कहने से हमारे उपाश्रय जलने वाले नहीं हैं।" यह सुन कर गोशालक भगवान के पास आया और बोला-"प्राज मैंने सारंभी और सपरिग्रही साधुओं को देखा । उनके द्वारा आपके अपवाद करने पर मैंने कहा-"धर्माचार्य के दिव्य तेज से तुम्हारा उपाश्रय जल जाय, किन्तु उनका उपाश्रय जला नहीं, इसका क्या कारण है ?" सिद्धार्थ देव ने कहा"गोशालक ! वे पार्श्वनाथ के सन्तानीय साधु हैं । साधुओं के तपस्तेज उपाश्रय जलाने के लिए नहीं होता।" १ ततो कुमारायं संनिवेसं गता। [प्राव. चू., १ । पृ० २८५] २ प्राव. चू., पृ० २८५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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