________________
साप-प्रदान]
भगवान् महावीर
उधर प्राचार्य मुनिचन्द्र उपाश्रय के बाहर खड़े हो ध्यानमग्न हो गये। मदं रात्रि के समय कूपनय नामक कुम्भकार अपनी मित्रमण्डली में सुरापान कर अपने घर की ओर लौटा। उपाश्रय के बाहर ध्यानमग्न मुनि को देख कर मद्य के नशे में मदहोश उस कुम्भकार ने उन्हें चोर समझ कर अपने दोनों हाथों से मुनि का गला धर दबाया । असह्य वेदना होने पर भी मुनिचन्द्र ध्यान में अडोल खड़े रहे । समभाव से शुक्लध्यान में स्थित होने के कारण मुनिचन्द्र को तत्काल केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई और उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया।
देवों ने पुष्पादि की वर्षा कर केवलज्ञान की महिमा की । जब गोशालक ने देवों को प्राते-जाते देखा तो उसने समझा कि उन साधुओं का उपाश्रय जल रहा है।
गोशालक ने भगवान ने कहा-"उन विरोधियों का उपाश्रय जल रहा है।" इस पर सिद्धार्थ देव ने कहा-"उपाश्रय नहीं जल रहा है। प्राचार्य को केवलज्ञान की उपलब्धि हुई है, इसलिए देवगण महिमा कर रहे हैं।"
गन्धोदक और पुष्पों की वर्षा देख कर गोशालक को बड़ा हर्ष हुअा । वह उपाश्रय में जाकर मुनिचन्द्र के शिष्यों से कहने लगा-"अरे ! तुम लोगों को कुछ भी पता नहीं है, खाकर अजगर की तरह सोये पड़े हो । तुम्हें अपने प्राचार्य के काल-कवलित हो जाने का भी ध्यान नहीं है । गोशालक की बात सुन कर साधु उठे और अपने प्राचार्य को कालप्राप्त समझ कर प्रगाढ़ पश्चात्ताप और अपने आपकी निन्दा करते रहे । गोशालक ने भी अवसर देख कर उन्हें जी भर भला-बुरा कहा.।'
प्राचार्य हेमचन्द्र के अनुसार मुनिचन्द्र को उस समय अवधिज्ञान हुमा और उन्होंने स्वर्गगमन किया।
कुमारक से विहार कर भगवान् 'चोराक सन्निवेश'3 पधारे । वहां पर चोरों का प्रत्यधिक भय था। प्रतः वहाँ के पहरेदार अधिक सतर्क रहते थे। भगवान उधर पधारे तो पहरेदारों ने उनसे परिचय पूछा, पर मौनस्थ होने के कारण प्रभु की ओर से कोई उत्तर नहीं मिला । पहरेदार उनके इस प्राचरण से सशंक और बड़े ऋद्ध हए । फलतः प्रभु को गुप्तचर या चोर समझ कर उन्होंने उन्हें अनेक प्रकार की यातनाएं दीं। जब इस बात की सूचना ग्रामवासी 'उत्पल' निमित्तज्ञ की बहिनों, 'सोमा और जयंती' को मिली तो वे घटना स्थल पर १ प्रावश्यक चूणि, भाग १, पृ० २८६ २ त्रिषष्टि शलाका पुरुष चरित्र, १०१३।४७० से ४७७ ३ गोरखपुर जिले में स्थित चौराचौरी
[तीपंकर महावीर, पृ० १९७]
MPuranARAIPMwomamar
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org