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________________ केशी - गौतम मिलन ] भगवान् महावीर ६५१ लोगों को समझाना कठिन था और पश्चात् वरित लोगों के लिये धर्म का पालन करना कठिन है, अतः भगवान् ऋषभदेव और भगवान् महावीर ने पंच महाव्रत रूप धर्म बतलाया । मध्य तीर्थंकरों के समय में लोग सरल प्रकृति और बुद्धिमान् होने के कारण थोड़े में समझ भी लेते और उसे पाल भी लेते थे । अतः पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म कहा है । आशय यह है कि प्रत्येक को सरलता से व्रतों का बोध हो और सभी अच्छी तरह उनको पाल सकें । यही चातुर्याम और पंच - शिक्षा रूप धर्म-भेद का दृष्टिकोण है ।" (२) गौतम के उत्तर से केशी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने दूसरी शंका वेष के विषय में प्रस्तुत की और बोले - " गौतम ! वर्द्धमान महावीर ने अचेलक धर्म बतलाया और पार्श्वनाथ ने उत्तरोत्तर प्रधान वस्त्र वाले धर्म का उपदेश दिया । इस प्रकार दो तरह का लिंग भेद देख कर क्या आपके मन में विपर्यय नहीं होता ?" गौतम ने कहा - " लोगों के प्रत्ययार्थ यानी जानकारी के लिए नाना प्रकार के वेष की कल्पना होती है । संयम रक्षा और धर्म - साधना भी लिंग-धारण का लक्ष्य है । वेष से साधु की सरलता से पहिचान हो जाती है, अतः लोक में बाह्य लिंग की आवश्यकता है । वास्तव में सद्भूत मोक्ष की साधना में ज्ञान, दर्शन और चरित्र ही निश्चय लिंग हैं । बाह्य लिंग बदल सकता है पर अन्तर्लिंग एक और अपरिवर्तनीय है । अतः लिंग-भेद के तत्त्वाभिमुख-‍ -गमन में संशय करने की आवश्यकता नहीं रहती ।" (३) फिर केशिकुमार ने पूछा - " गौतम ! आप सहस्रों शत्रुओं के मध्य में खड़े हैं, वे आपको जीतने के लिये आ रहे हैं। आप उन शत्रुओं पर कैसे विजय प्राप्त करते हैं ?" गौतम स्वामी बोले - “एक शत्रु के जीतने से पाँच जीते गये और पाँच की जीत से दश तथा दश शत्रुओं को जीतने से मैंने सभी शत्रुओं को जीत लिया है ।" केशिकुमार बोले - " वे शत्रु कौनसे हैं ? " गौतम ने कहा - " हे महामुने ! नहीं जीता हुआ अपना आत्मा ( मन ) शत्रुरूप है, एवं चार कषाय तथा ५ इन्द्रियाँ भी शत्रुरूप हैं । एक आत्मा के जय से ये सभी वश में हो जाते हैं । जिससे मैं इच्छानुसार विचरता हूँ और मुझे ये शत्रु बाधित नहीं करते ।" (४) केशिकुमार ने पुन: पूछा - " गौतम ! संसार के बहुत से जीव पाशबद्ध देखे जाते हैं, परन्तु प्राप पाशमुक्त लघुभूत होकर कैसे विचरते हैं ?” Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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