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केशी - गौतम मिलन ]
भगवान् महावीर
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लोगों को समझाना कठिन था और पश्चात् वरित लोगों के लिये धर्म का पालन करना कठिन है, अतः भगवान् ऋषभदेव और भगवान् महावीर ने पंच महाव्रत रूप धर्म बतलाया । मध्य तीर्थंकरों के समय में लोग सरल प्रकृति और बुद्धिमान् होने के कारण थोड़े में समझ भी लेते और उसे पाल भी लेते थे । अतः पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म कहा है । आशय यह है कि प्रत्येक को सरलता से व्रतों का बोध हो और सभी अच्छी तरह उनको पाल सकें । यही चातुर्याम और पंच - शिक्षा रूप धर्म-भेद का दृष्टिकोण है ।"
(२) गौतम के उत्तर से केशी बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने दूसरी शंका वेष के विषय में प्रस्तुत की और बोले - " गौतम ! वर्द्धमान महावीर ने अचेलक धर्म बतलाया और पार्श्वनाथ ने उत्तरोत्तर प्रधान वस्त्र वाले धर्म का उपदेश दिया । इस प्रकार दो तरह का लिंग भेद देख कर क्या आपके मन में विपर्यय नहीं होता ?"
गौतम ने कहा - " लोगों के प्रत्ययार्थ यानी जानकारी के लिए नाना प्रकार के वेष की कल्पना होती है । संयम रक्षा और धर्म - साधना भी लिंग-धारण का लक्ष्य है । वेष से साधु की सरलता से पहिचान हो जाती है, अतः लोक में बाह्य लिंग की आवश्यकता है । वास्तव में सद्भूत मोक्ष की साधना में ज्ञान, दर्शन और चरित्र ही निश्चय लिंग हैं । बाह्य लिंग बदल सकता है पर अन्तर्लिंग एक और अपरिवर्तनीय है । अतः लिंग-भेद के तत्त्वाभिमुख- -गमन में संशय करने की आवश्यकता नहीं रहती ।"
(३) फिर केशिकुमार ने पूछा - " गौतम ! आप सहस्रों शत्रुओं के मध्य में खड़े हैं, वे आपको जीतने के लिये आ रहे हैं। आप उन शत्रुओं पर कैसे विजय प्राप्त करते हैं ?"
गौतम स्वामी बोले - “एक शत्रु के जीतने से पाँच जीते गये और पाँच की जीत से दश तथा दश शत्रुओं को जीतने से मैंने सभी शत्रुओं को जीत लिया है ।"
केशिकुमार बोले - " वे शत्रु कौनसे हैं ? "
गौतम ने कहा - " हे महामुने ! नहीं जीता हुआ अपना आत्मा ( मन ) शत्रुरूप है, एवं चार कषाय तथा ५ इन्द्रियाँ भी शत्रुरूप हैं । एक आत्मा के जय से ये सभी वश में हो जाते हैं । जिससे मैं इच्छानुसार विचरता हूँ और मुझे ये शत्रु बाधित नहीं करते ।"
(४) केशिकुमार ने पुन: पूछा - " गौतम ! संसार के बहुत से जीव पाशबद्ध देखे जाते हैं, परन्तु प्राप पाशमुक्त लघुभूत होकर कैसे विचरते हैं ?”
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