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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केशी-गौतम गौतम स्वामी ने कहा-"महामुने ! राग-द्वेष रूप स्नेह-पाश को मैंने उपाय पूर्वक काट दिया है, अतः मैं मुक्तपाश और लघुभूत हो कर विचरता हूँ।"
(५) केशिकुमार बोले-"गौतम ! हृदय के भीतर उत्पन्न हुई एक लता है, जिसका फल प्राणहारी विष के समान है । आपने उसका मूलोच्छेद, कैसे किया है ?"
__ गौतम ने कहा-"महामने ! भव-तृष्णा रूप लता को मैंने समूल उखाड़ कर फेंक दिया है, अतः मैं निश्शंक होकर विचरता हूँ।"
(६) केशिकुमार बोले-"गौतम ! शरीर-स्थित घोर तथा प्रचण्ड कषायाग्नि, जो शरीर को भस्म करने वाली है, उसको आपने कैसे बुझा रखा है ?"
गौतम ने कहा-"महामने ! वीतरागदेवरूप महामेघ से ज्ञान-जल को प्राप्त कर मैं इसे निरन्तर सींचता रहता हूँ। अध्यात्म-क्षेत्र में कषाय ही अग्नि और श्रुत-शील एवं तप ही जल है । अतः श्रुत-जल की धारा से परिषिक्त कषाय की अग्नि हमको नहीं जलाती है।"
(७) केशिकुमार बोले-"गौतम ! एक साहसी और दुष्ट घोड़ा दौड़ रहा है, उस पर आरूढ़ होकर भी आप उन्मार्ग में किस कारण नहीं गिरते ?"
___ गौतम ने कहा-"श्रमणवर ! दौड़ते हुए अश्व का मैं श्रुत की लगाम से निग्रह करता हूँ । अतः वह मुझे उन्मार्ग पर न ले जा कर सुमार्ग पर ही बढ़ाता है। आप पूछेगे कि वह कौन सा घोड़ा है, जिसको तुम श्रुत की लगाम से निग्रह करते हो । इसका उत्तर यह है कि मन ही साहसी और दुष्ट अश्व है, जिस पर मैं बैठा हूँ। धर्मशिक्षा ही इसकी लगाम है, जिससे कि मैं सम्यगरूप से मन का निग्रह कर पाता हूँ।"
(८) केशिकुमार ने पूत्दा-"गौतम ! संसार में बहुत से कुमार्ग हैं जिनमें लोग भटक जाते हैं किन्तु श्राप मार्ग पर चलते हैं, मार्गच्युत कैसे नहीं होते हैं ?"
गौतम ने कहा- "महाराज ! मैं सन्मार्ग पर चलने वाले और उन्मार्ग पर चलने वाले, दोनों को ही जानता हूँ, इसलिये मार्ग-च्युत नहीं होता । मैंने समझ लिया है कि कुप्रवचन के व्रती सब उन्मार्गगामी हैं, केवल वीतराग जिनेन्द्रप्रणीत मार्ग ही उत्तम मार्ग है ।"
(8) केशिकुमार बोले-"गौतम ! जल के प्रबल वेग में जग के प्राणी
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