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क्लैब्यं मास्म गमः पार्थ, नैतत्त्वटयुपपद्यते।
। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं ! त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप !।
और तत्क्षण ऐसा अनुभव होता मानो अंतर का तार विद्युत के बहुत बड़े जनरेटर से जुड़ गया है। मैं पुनः यथावत् कार्य में जुट जाता।
श्रमणश्रेष्ठ-जीवन और आचार्य-पद के दैनिक दायित्वों का निर्वहन करने के साथ-साथ अहर्निश इतिहास-लेखन में तन्मयता के साथ लीन रहने पर भी आचार्यश्री के प्रशस्त भाल पर थकान की कोई हल्की सी रेखा तक भी कभी दृष्टिगोचर नहीं हुई। चेहरे पर वही सहज मुस्कान आंखों में महऱ्या मुक्ताफल की सी स्वच्छ-अद्भुत चमक सदा अक्षुण्ण विराजमान रहती।
जिस प्रकार संसार और संसार के मूलभूत-द्रव्य अनादि एवं अनंत हैं, उसी प्रकार आत्मधर्म होने के कारण जैन धर्म तथा उसका इतिहास भी अनादि तथा अनन्त है। अतः जैन इतिहास को किसी एक ग्रन्थ अथवा अनेक ग्रन्थों में सम्पूर्ण रूप से आबद्ध करने का प्रयास करना वस्तुतः अनन्त आकाश को बांहों में समेट लेने के प्रयास के तुल्य असाध्य और असंभव है। फिर भी प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव द्वारा धर्म-तीर्थ की स्थापना से प्रारम्भ कर अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के निर्वाण-समय तक का जैन धर्म का क्रमबद्ध एवं संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया गया है। इसके साथ ही साथ कुलकर-काल एवं अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणीकाल को मिलाकर बीस कोड़ाकोड़ी सागर के पूर्ण काल-चक्र का एक रेखाचित्र की तरह अति संक्षिप्त स्थूल विवरण भी यथाप्रसंग दिया गया है।
इस प्रवर्तमान अवसर्पिणीकाल में भरतक्षेत्र में सर्वप्रथम भगवान् ऋषभदेव ने तृतीय आरक की समाप्ति में ९९६ वर्ष ३ मास १५ दिन कम एक लाख पूर्व का समय अवशेष रहा उस समय धर्म-तीर्थ की स्थापना की। उसी समय से इस अवसर्पिणीकालीन जैन धर्म का इतिहास प्रारम्भ होता है। भगवान् ऋषभदेव द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन के काल से लेकर भगवान् महावीर के निर्वाणकाल तक का इतिहास प्रस्तुत ग्रन्थ में देने का प्रयत्न किया गया है। चतुर्थ आरक के समाप्त होने में जब तीन वर्ष और साढ़े आठ मास अवशेष रहे तब भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ।
इस प्रकार यह इतिहास एक कोड़ा-कोड़ी सागर, ७० शंख, ५५ पद्म, निन्यानवें नील, निन्यानवें खरब, निन्यानवें अरब, निन्यानवें करोड़, निन्यानवें लाख और सत्तावन हजार वर्ष का अति सक्षिप्त इतिहास है।
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