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स्वनामधन्य आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज साहब ने "स्वान्तःसुखाय-परजनहिताय च' इस भावना से प्रेरित हो जैन धर्म का प्रारम्भ से लेकर आज तक का सही, प्रामाणिक, सर्वांगपूर्ण और क्रमबद्ध इतिहास लिखने का भगीरथ प्रयास प्रारम्भ किया। वास्तव में आचार्यश्री ने इस दुस्साध्य एवं गुरुतर महान् दायित्व को अपने ऊपर लेकर अद्भुत साहस का परिचय दिया है।
इतिहास-लेखन जैसे कार्य के लिये गहन अध्ययन, क्षीरनीर विवेकमयी तीव्र बुद्धि, उत्कृष्ट कोटि की स्मरणशक्ति, उत्कट साहस, अथाह ज्ञान, अडिग अध्यवसाय, पूर्ण निष्पक्षता, घोर परिश्रम आदि अत्युच्चकोटि के गुणों की आवश्यकता रहती है। वे सभी गुण आचार्यश्री में विद्यमान हैं। पर इतिहासलेखन का कार्य लेखक से इस बात की अपेक्षा करता है कि वह अपना अधिकाधिक समय लेखन के लिये दे। ध्यान, स्वाध्याय, अध्यापन, व्याख्यान, संघ-व्यवस्था एवं विहारादि अनिवार्य कार्यों के कारण पहले से ही अपनी अति-व्यस्त दिनचर्या का निर्वहरण करने के साथ-साथ "जैन धर्म के मौलिक इतिहास' का यह प्रथम भाग पूर्ण कर आचार्यश्री ने नीतिकार की इस सूक्ति को अक्षरशः चरितार्थ कर दिखाया :
प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः, प्रारभ्य विघ्नविहताः विरमन्ति मध्याः । विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः,
प्रारब्धमुत्तमजनाः न परित्यजन्ति | इस महान कार्य को सम्पन्न करने में आचार्यश्री को कितना घोर परिश्रम, गहन चिन्तन-मनन-अध्ययन करना पड़ा है, इसकी कल्पना मात्र से प्रत्यक्षदर्शी सिहर उठते हैं। आचार्यश्री के अक्षय शक्ति भण्डार, बौद्धिक एवं शारीरिक प्रबल परिश्रम का इस ही से अनुमान लगाया जा सकता है कि आचार्यश्री से आशुलिपि में डिक्टेशन लेने, उसे नागरी लिपि में लिखने तथा स्पष्ट एवं विस्तृत निर्देशन के अनुसार लेखन-सम्पादन के एक वर्ष मात्र के कार्य से मुझे अनेक बार ऐसा अनुभव होता कि कहीं मेरे मस्तिष्क की शिराए फट न जायें। पर ज्योंही प्रातःकाल इन महान् योगी को पूर्ण मनोयोग से नित्यनवीन शतगुणित शक्ति से इतिहास-लेखन में व्यस्त देखता तो मुझे अपनी दुर्बलता पर लज्जा का अनुभव होता, अन्तर के कर्णरन्ध्रों में एक उद्घोष सा उद्भुत होता
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम । अनार्य जुष्टमस्व→मकीर्तिकरमर्जुन !।
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