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________________ कल्पना द्वारा भी अपरिमेय इस सुदीर्घ अतीत में असंख्य बार भरत-क्षेत्र की धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, बौद्धिक एवं भौगोलिक स्थिति में उतार-चढ़ाव आये, उन सब का लेखा-जोखा रखना वास्तव में दुस्साध्य ही नहीं नितान्त असंभव कहा जा सकता है। पर इस लम्बी अवधि में भी आर्यधरा पर समय-समय पर चौबीस तीर्थंकर प्रकट हुए और भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान को हस्तामलक की तरह युगपद् देखने-जानने वाले त्रिकालदर्शी उन तीर्थंकरों ने विस्मृति के गर्भ में छुपे उन सभी उपयोगी तथ्यों को समय-समय पर वाणी द्वारा प्रकाशित किया। तीर्थंकरों द्वारा प्रकट किये गये उन ध्रुव-तथ्यों में से कतिपय तथ्य तो सुदीर्घ अतीत के अन्धकार में विलीन हो गये पर नियतकालभावी अधिकांश तथ्य सर्वज्ञभाषित आगम परम्परा के कारण आज भी अपना असंदिग्ध स्वरूप लिये हमारी अमूल्य थाती के रूप में विद्यमान हैं। जो कतिपय तथ्य विस्मृति के गह्वर में विलीन हुए उनमें से भी कतिपय महत्त्वपूर्ण तथ्य प्राचीन आचार्यों ने अपनी कृतियों में आबद्ध कर सुरक्षित रखे हैं। उन बिखरे तथ्यों को यदि पूरी शक्ति लगा कर क्रमबद्ध रूप से एकत्रित करने का सामूहिक प्रयास किया जाये तो हस्तलिखित प्राचीन पुस्तकों में और भी ऐसी विपुल सामग्री उपलब्ध होने की संभावना है, जिससे कि केवल जैन इतिहास के ही नहीं अपितु भारतवर्ष के समूचे प्राचीन इतिहास के कई धमिल एवं लुप्तप्राय तथ्यों के प्रकाश में आने और अनेक नई ऐतिहासिक उपलब्धियाँ होने की आशा की जा सकती हमारा अतीत बड़ा आदर्श, सुन्दर और स्वर्णिम रहा है। हम लोगों के ही प्रमाद के कारण वह धूमिल हो रहा है। आज भी भारतीय दर्शन की संसार के उच्चकोटि के तत्त्वचिन्तकों के हृदय पर गहरी छाप है। पाश्चात्य विद्वानों ने समय-समय पर यह स्पष्ट अभिमत व्यक्त किया है कि भारतीय दर्शन एवं चिन्तकों का संसार में सदा से सर्वोच्च स्थान रहा है और भारतीय संस्कृति मानव-संस्कृति का आदि-स्रोत है। सर्वतोमुखी भौतिक विज्ञान के क्षेत्र में भी हमारे पूर्वज अत्यधिक बढ़े-चढ़े थे, यह तथ्य हमारे शास्त्र और धार्मिक ग्रन्थ डिण्डिम घोष से प्रकट कर रहे हैं। अमोघ शक्तियाँ, अमोघबाण, आग्नेयास्त्र, वायव्यास्त्र, ब्रह्मास्त्र, रौद्रास्त्र, वैश्णवास्त्र, वरुणास्त्र, रथमूसलास्त्र (आधुनिक टैंकों से भी अत्यधिक संहारक स्वचालित भीषण अस्त्र), महाशिलाकण्टक (अद्भुत प्रक्षेपणास्त्र), शतघ्नी आदि संहारक अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण और प्रयोग हमारे पूर्वज जानते थे, यह हमारे प्राचीन ग्रन्थ पुकार-पुकार कर कहते हैं पर हमारा सम्मोह और मतिविभ्रम हमें इस ध्रुव सत्य को स्वीकार नहीं करने देता। ( ३८ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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