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इतिहास साक्षी है कि जब तक भारतीयों ने अपने उज्ज्वल अतीत के सही इतिहास को विस्मृत नहीं किया, तब तक वे उन्नति के उच्चतम शिखर पर आसीन रहे और जब से अपने इतिहास को भुलाया उसी दिन से अधःपतन प्रारम्भ हो गया। हमने प्राचीन—- "संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्, समानो मन्त्रस्समितिस्समानी समानं मनस्सहचित्तमेषाम् । समानी व आकूतिस्समाना हृदयानि वः। समानमस्तु वो मनो यथा वस्सुसहासति ।" और "सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु सह नौ वीर्य करवावहै तेजस्वी नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ।" इन सिंहनादों को भुला कर सफलता की कुंजी ही खो दी।
• यदि हम वास्तव में सच्चे हृदय से अपनी खोई हुई समृद्धि प्रतिष्ठा और गौरव गरिमा को पुनः प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें अपने इतिहास का वास्तविक ज्ञान करना होगा। क्योंकि इतिहास वह सीढ़ी है जो सदा ऊपर की ओर ही चढ़ाती है और कभी नीचे नहीं गिरने देती ।
उन्नति के इस मूलमन्त्र को श्रद्धेय जैनाचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज साहब ने अच्छी तरह अनुभव करने के पश्चात् जैन धर्म के मौलिक इतिहास के रूप में एक महान् सम्बल और अक्षय्य पाथेय हमें प्रदान किया है, जिसमें जीवन को समुन्नत बनाने वाले प्रशस्त मार्ग के साथ-साथ 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' के दर्शन होते हैं ।
अत्युच्च कोटि के विचारक, इतिहासज्ञ और महान् संत की कृति का संपादन करना किसी बड़े विद्वान् का कार्य हो सकता है, जिसने सम्पूर्ण जैनागम और प्राचीन साहित्य का समीचीन रूप से अध्ययन किया हो और जो स्वयं उच्च कोटि का इतिहासज्ञ एवं इतिहास की सूक्ष्म से सूक्ष्म बारीकियों को परखने में कुशल हो। पर इन पंक्तियों के प्रस्तुतकर्त्ता में इस प्रकार की कोई भी योग्यता नाम मात्र को भी नहीं है। जो कुछ सम्पादन कार्य बन पड़ा है, वह इस पुस्तक के लेखक करुणाकार आचार्यश्री की असीम कृपा और इस पुस्तकं के संपादक मण्डल के सम्माननीय विद्वानों के विश्वास और स्नेह का ही फल है।
इस पुस्तक में यदि कोई त्रुटि अथवा आगम-विरुद्ध बात रह गई हो तो पूरी ईमानदारी के साथ कार्य करते रहने पर भी अल्पज्ञ होने के कारण यह सम्पादकीय का लेखक ही उसके लिये पूर्णरूपेण दोषी है।
'यदत्रासौष्ठवं किञ्चित्तन्ममैव न कस्यचित्' इस पद के माध्यम से सम्भावित अपनी सभी त्रुटियों के लिए विद्वद्वृन्द के समक्ष मैं क्षमाप्रार्थी हूँ। श्रद्धेय आचार्यश्री ने जैन धर्म के इतिहास के सम्बन्ध में नोट्स, लेख
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