SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० ऋषभदेव की सन्तति ८२. अरिंजय ८८. वीर ६४. सञ्जय ८३. कञ्जरबल ८६. शुभमति ६५. सुनाम ८४. जयदेव ६०. समति ६६. नरदेव ८५. नागदत्त . ६१. पद्मनाभ ६७. चित्तहर ८६. काश्यप ६२. सिंह ६८. सुखर ८७. बल ६३. सुजाति ६६. दृढ़रथ १००. प्रभंजन दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य जिनसेन ने भगवान् ऋषभदेव के १०१ पुत्र माने हैं । एक नाम वृषभसेन अधिक दिया है । भगवान् ऋषभदेव की पुत्रियों के नाम - १. ब्राह्मी २. सुन्दरी। संतति को प्रशिक्षण भ० ऋषभदेव के १०० पूत्र एवं दो पुत्रियां - ये सभी सर्वांग सुन्दर, शुभ लक्षणों एवं उत्तम गुरणों से सम्पन्न थे। वे अपने पितामह नाभिराज, पितामही मरुदेवी, माता-पिता और परिजनों का अपनी बाल-लीलाओं से मनोविनोद करते हुए अनुक्रमशः वृद्धिंगत होने लगे । वे सभी वज्रऋषभ, नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान के धनी एवं उसी भव से मोक्ष जाने वाले चरमशरीरी थे। अनुक्रमश: बालवय को पार कर प्रभु की संतानों ने किशोर वय में प्रवेश किया। अपने कुलकर काल में यौगलिकों के समक्ष समय-समय पर उपस्थित होने वाली भांति-भांति की समस्याओं का समाधान कर उनका मार्गदर्शन करने वाले तीन ज्ञान के धनी ऋषभदेव ने सोचा कि भरतक्षेत्र में अब यह भोग-युग के अवसान का अन्तिम चरण है। भोग-युग की समाप्ति के साथ ही भोगभूमि की सब प्रकार की सुख सुविधाएँ-कल्पवृक्षादि की भी परिसमाप्ति सुनिश्चित है। भोगयुग के पश्चात् जो कर्मयूग आने वाला है, उसमें मानव-समाज को अपने परिश्रम से जीवननिर्वाह करना है। यह भोगभूमि अब कर्मभूमि के रूप में परिवर्तित हो जायेगी। इन दोनों युगों का संधिकाल मानव-समाज के लिये वस्तुतः एक प्रकार का संकटकाल है। भोगभूमि की सुख-सुविधाओं के अभ्यस्त मानव को, कर्मभूमि के कठोर श्रमसाध्य कर्मयुग के अनुरूप अपना जीवन ढालने में अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। जब तक भोगयुग की अवधि पूर्णतः समाप्त नहीं हो जाती तब तक इन लोगों के जीवन को कर्मभूमि के अनुरूप ढालने का प्रयास पूर्ण सफल नहीं होगा। क्योंकि इस भोगभूमि का प्राकृतिक वातावरण कर्मभूमि के कृषि प्रादि कार्यों के लिये पूर्णतः प्रतिकूल है । कर्मभूमि (क) कल्पमूत्र किरणावली, पत्र १५१-५२ (ख) कल्पसूत्र सुबोधिका टीका, व्याख्यान ७, पृ० ४६८ २ महापुराण पर्व १६, पृ० ३४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy