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संतति को प्रशिक्षण
भगवान् ऋषभदेव के प्रारम्भ होने पर ही धरती का धरातल और वातावरण कर्मभूमि के कृषि आदि कार्यों के लिये अनुकूल बनेगा।
इस प्रकार की स्थिति में इन सर्वगुण सम्पन्न एवं कुशाग्रबुद्धि भरत आदि सौ कुमारों और ब्राह्मी एवं सुन्दरी को कर्मभूमि के लिये परमावश्यक सभी प्रकार के कार्यों, कलाओं और विद्याओं आदि का पूर्णरूपेण प्रशिक्षण दे दिया जाय तो वह समय आने पर मानवता के लिये परम कल्याणकारी होगा। भोगभूमि के अवसान पर कर्मभूमि का शुभारम्भ होते ही कर्मभूमि के उन कार्यो, कलायों और विद्याओं में पारंगत ये भरत आदि सौ कुमार सुदूरस्थ प्रदेशों के लोगों को भी तत्काल उन सब प्रावश्यक कार्यकलापों का प्रशिक्षण देकर मानवों को कष्ट से बचाने में बड़े सहायक सिद्ध होगे। वस्तुतः प्रभू का यह अलोकिक दूरदशितापूर्ण विचार प्रभु के त्रिलोकवंद्य अलौकिक व्यक्तित्व के अनुरूप ही था। प्यास लगने पर कुआ खोदने जैसी प्रक्रिया की तो साधारण बुद्धि वाले व्यक्ति से भी अपेक्षा नहीं की जाती। आखिर चौदह लाख पूर्व जैसी सुदीर्घावधि तक वे अपनी संतानों को प्रशिक्षित क्यों रखते ?
इस प्रकार का दूरदर्शितापूर्ण निश्चय करने के पश्चात् एक दिन प्रभू ऋषभदेव ने अपनी संतानों को प्रारम्भिक शिक्षण देना प्रारम्भ किया। सर्वप्रथम उन्होंने अपनी पुत्री ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अठारह प्रकार की लिपियों नः! ज्ञान कराया और सुन्दरी को वाम हस्त से गणित ज्ञान की शिक्षा दी।
तदनन्तर अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को पुरुषों की ७२ कलाओं और बाहुबली को प्राणिलक्षण का ज्ञान कराया। प्रभु ने अपनी दोनों पुत्रियों को महिलायों की चौसठ कलाओं की शिक्षा दी। ब्राह्मी, सुन्दरी और भरत आदि ने इस अवसर्पिणी काल के प्राद्य गुरु भगवान् ऋषभदेव के चरणों में बैठ कर प्राद्य शिक्षार्थियों के रूप में बड़ी ही निष्ठा के साथ लेखन, गणित, परिवाररक्षण, व्याकरण, छन्द, अलंकार, अर्थशास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र, आयुर्वेद, शिल्प शास्त्र, 'स्थापत्य कला, चित्र कला, संगीत आदि सभी प्रकार की विद्याओं एवं कलानों का अध्ययन कर निष्णातता प्राप्त की।
प्रभु ऋषम का राज्याभिषेक चौदहवें कुलकर अपने पिता नाभि के सहयोगी कुलकर के रूप में तत्कालीन मानव समाज के समक्ष समय-समय पर उपस्थित हुई समस्याओं का १ लेहं लिविविहाणं जिणेण बंभीए दाहिण करेणं । २ गणियं संखारणं सुन्दरीए वामेण उवइठें ।।२१२।। प्राव० नि० 3.४ भरहस्स रूवकम्म, नराइलवरणमहोइयं वलियो । माणुम्माणुवमारणं, पमाणगरिणमा य वत्थूणं ।।
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