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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ प्रभु ऋषभ का राज्याभिषेक
समुचित समाधानपूर्वक प्रभु ऋषभदेव यौगलिकों को उस समय की बड़ी तीव्र गति से बदली हुई परिस्थितियों में मार्गदर्शन करते हुए सुदीर्घावधि तक ऐहिक सुखों का अनासक्त भाव से सुखोपभोग करते रहे ।
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प्रकृति का स्वरूप बड़ी द्रुत गति से परिवर्तित होने लगा । अंगड़ाई लेते आ रहे काल ने करवट बदली । भोगभूमि का काल, प्रकृतिपुत्रों (यौगलिकों) को प्रकृति द्वारा प्रदत्त कल्पवृक्ष प्रादि सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं की सामग्री को समेट भरतक्षेत्र से विदा हो तिरोहित हो गया । कर्मभूमि का काल भरतक्षेत्र की धरा के कर्मक्षेत्र में कटिबद्ध हो आ धमका। चारों ओर कल्पवृक्ष क्रमशः क्षीण से क्षीणतर होते-होते उस समय तक लुप्तप्रायः हो गये । बचे-खुचे कुछ अवशिष्ट भी रहे तो वे विरस, रसविहीन, फलविहीन हो गये । प्रकृति-जन्य कन्द, मूल, फल, फूल, पत्र, वन्य धान्य - शाली, ब्रीही आदि का प्राचुर्य भी प्रकृति के परिवर्तन के साथ परिवर्तित हो स्वल्प रह गया । लोकजीवन के निर्वाह के लिये उन प्रकृतिजन्य पदार्थों को अपर्याप्त माना जाने लगा। सभी प्रकार की महौषधियों, दीप्तौषधियों, वनस्पतियों आदि की अद्भुत शक्तियां प्रभावविहीन हो गईं ।
इस प्रकार मानव के जीवन निर्वाह की सामग्री के अपर्याप्त मात्रा में अवशिष्ट रह जाने के कारण प्रभाव की स्थिति उत्पन्न हुई । प्रभाव के परिणामस्वरूप अभियोगों की अभिवृद्धि हुई । अभाव अभियोग की स्थिति में मानवमस्तिष्क के ज्ञानतन्तुओं की नसें तनने लगीं । हृत्तन्त्रियां अनायास ही एक साथ झन्झना कर झनक उठीं । अभावग्रस्त भूखे मानव के मस्तिष्क में अपराध करने की प्रवृत्ति ने बल पकड़ा। छीना-झपटी होने लगी । स्वतः निष्पन्न कन्द, मूल, फल, धान्यादि के प्रश्न को लेकर मानव समाज में परस्पर कलह बढ़ने लगे । उधर प्रकृति के परिवर्तन के साथ ही वायु, वर्षा, शीत, प्रातप और हिंस्र जन्तुनों में भी, सदा सुख से रहते आये मानव के लिये दुस्सा और प्रतिकूल परिवर्तन आया ।
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इन सब प्रतिकूल प्राकृतिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप, लगभग ६ कोटि सागरोपम जैसी सुदीर्घावधि से शान्ति के साथ रहती चली आ रही मानवता के सौम्य स्वभाव में भी प्रतिकूल परिवर्तन का आना सहज संभव ही था । जिस प्रकार पूर्व कुलकरों के काल में प्रचलित 'ह' कार और 'म' कार दण्ड नीतियां अन्ततोगत्वा निष्प्रभाव हुईं, उसी प्रकार अन्तिम कुलकरों के समय में प्रचलित अपराध निरोध की “धिक्" कार दण्डनीति भी परिवर्तित परिस्थितियों में नितान्त निष्क्रिय, निष्फल और निष्प्रभाव सिद्ध होने लगीं ।
इस प्रकार की संक्रान्तिकालीन संकटपूर्ण स्थिति से घबरा कर यौगलिक लोग एकत्रित हो अपने परमोपकारी पथप्रदर्शक प्रभु ऋषभदेव के पास पहुँचे और उन्हें वस्तुस्थिति का परिचय कराते हुए प्रार्थना करने लगे - " करुणानिधान ! जिस प्रकार आपने आज तक हमारे सब संकटों को काट कर हमारे प्राणों की रक्षा की है, उसी प्रकार इस घोर संकट से भी हमारी रक्षा कीजिये । भूख की
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