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________________ भगवान् का प्रथम पारणा] भगवान् ऋषभदेव यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि भगवान् ऋषभदेव ने चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन षष्ठ भक्त अर्थात् बेले की तपस्या के साथ प्रवज्या ग्रहण की और यदि दूसरे वर्ष की वैशाख शुक्ला तृतीया को श्रेयांश कुमार के यहाँ प्रथम पारणा किया तो यह उनकी पूरे एक वर्ष की ही तपस्या न होकर चैत्र कृष्णा अष्टमी से वैशाख शुक्ला तृतीया तक तेरह मास और दश दिन की तपस्या हो गई। ऐसी स्थिति में - "संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसहेण लोगनाहेण" समवायांग सूत्र के इस उल्लेख के अनुसार प्रभू आदिनाथ के प्रथम तप को संवत्सर तप कहा है, उसके साथ संगति किस प्रकार बैठती है ? क्योंकि अक्षय तृतीया के दिन प्रभु का प्रथम पारणक मानने की दशा में भगवान् का प्रथम तप १३ मास और १० दिन का हो जाता है और शास्त्र में प्रभु का प्रथम तप एक संवत्सर का तप माना गया है। वस्ततः यह कोई प्राज का नवीन प्रश्न नहीं। यह एक बहचचित प्रश्न है। अनेक विचारकों की ओर से इस सम्बन्ध में शास्त्रीय पाठों के उद्धरण प्रादि के साथ साथ कतिपय युक्तियां-प्रयुक्तियां समय-समय पर प्रस्तुत की जाती रही हैं । किन्तु वस्तुतः अद्यावधि इस प्रश्न का कोई सर्वसम्मत समुचित हल नहीं निकल पाया है । एक मात्र इस लक्ष्य से कि तथ्य क्या है, इस प्रश्न पर और भी गहराई से विचार करने की आवश्यकता है। इस प्रश्न का समुचित समाधान प्राप्त करने का प्रयास करते समय सर्व प्रथम इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि सूत्रों में अनेक स्थलों पर सूत्र के मूल लक्षण वाली संक्षेपात्मक शैली को अपनाकर काल-गणना करते समय बड़े काल के साथ जहाँ छोटा काल भी सम्मिलित है, वहां प्रायः छोटे काल को छोड़ कर केवल बड़े काल का ही उल्लेख किया गया है। उदाहरण के रूप में देखा जाय तो स्थानांग सूत्र के नवम स्थान में जहाँ भगवान् ऋषभदेव द्वारा धर्म-तीर्थ की स्थापना के समय पर प्रकाश डाला गया है, वहाँ सूत्र के मूल लक्षण के अनुरूप संक्षेप शैली को अपना कर निम्नलिखित उल्लेख किया गया है : "उसभेणं अरहया कोसलिएणं इमीसे अोसप्पिणीए गवहिं सागरोवम कोडाकोडीहि विइक्कतेहिं तित्थे पवत्तिए।" इस सूत्र का सीधा शब्दार्थ किया जाय तो यही होगा कि कौशलिक अहंत् भगवान् ऋषभदेव ने इस अवसर्पिणी काल के नौ कोटाकोटि सागरोपम काल के व्यतीत हो जाने पर धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन किया। __ क्या कोई, शास्त्रों का साधारण से साधारण ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी इस सीधे से अथं को अक्षरश: मानने के लिये तैयार है ? कदापि नहीं। लाख बार समझाने पर भी इस मूत्र का यह अक्षरश: शब्दार्थ किसी के गले नहीं उतरेगा। क्योंकि यह निर्विवाद तथ्य है कि इस सूत्र में जो समय बताया गया है, उस समय से तीन वर्ष और साढ़े पाठ मास पूर्व ही भगवान् ऋषभदेव का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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