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जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् का प्रथम पारणा से सिंचित कर पुनः चमकाया है।'' दूसरी मोर सुबुद्धि श्रेष्ठि को स्वप्न माया कि सूर्य की हजार किरणें जो अपने स्थान से चलित हो रही थीं, श्रेयांस ने उनको पुनः सूर्य में स्थापित कर दिया, इससे वह अधिक चमकने लगा। महाराज सोमप्रभ ने स्वप्न देखा कि शत्रुनों से युद्ध करते हुए किसी बड़े सामन्त को श्रेयांस ने सहायता प्रदान की। और श्रेयांस की सहायता से उसने शत्रु-सैन्य को हटा दिया। प्रातःकाल तीनों मिलकर अपने-अपने स्वप्न पर चिंतन करने लगे,
और सब एक ही निष्कर्ष पर पहुंचे कि श्रेयांस कुमार को अवश्य ही कोई विशिष्ट लाभ प्राप्त होने वाला है।
उसी दिन पुण्योदय से भगवान् ऋषभदेव विचरते हुए हस्तिनापुर पधारे। बहुत काल के पश्चात् भगवान के दर्शन पाकर नगरजन प्रत्यन्त प्रसन्न हुए। जब श्रेयांसकुमार ने राजमार्ग पर भ्रमण करते हए भगवान् ऋषभदेव को देखा तो उनके दर्शन करते ही श्रेयांस के मन में जिज्ञासा हुई और ऊहापोह करते हुए, चिन्तन करते हुए उन्हें ज्ञानावरण के क्षयोपशम से जातिस्मरण ज्ञान हो गया । पूर्वभव की स्मृति से उन्होंने जाना कि ये प्रथम तीर्थंकर हैं। प्रारम्भ परिग्रह के सम्पूर्ण त्यागी हैं। इन्हें निर्दोष आहार देना चाहिये । इस प्रकार वे सोच ही रहे थे कि भवन में सेवक पुरुषों द्वारा इक्ष-रस के घड़े लाये गये। परम प्रसन्न होकर श्रेयांसकुमार सात-आठ कदम भगवान के सामने गये और प्रदक्षिणापूर्वक भगवान् को वन्दन कर स्वयं इक्ष-रस का घड़ा लेकर आये तथा त्रिकरण शुद्धि से प्रतिलाभ देने की भावना से भगवान के पास माये और बोले - "प्रभो! क्या, खप है?" भगवान् ने अञ्जलिपुट आगे बढ़ाया तो श्रेयांस ने प्रभू की अंजलि में सारा रस उंडेल दिया। भगवान् अछिद्रपारिण थे प्रतः रस की एक बूंद भी नीचे नहीं गिरने पाई । भगवान् ने वैशाख शुक्ला तृतीया को वर्ष-तप का पारणा किया। श्रेयांस को बड़ी प्रसन्नता हुई। उस समय देवों ने पंच-दिव्य की वर्षा की पौर 'अहो दानं, अहो दानं' की ध्वनि से आकाश गूंज उठा । श्रेयांस ने प्रभु को वर्षीतप का पारणा करवा कर महान् पुण्य का संचय किया मोर अशुभ कर्मों की निर्जरा की। उस युग के वे प्रथम भिक्षा दाता हुए। प्रादिनाथ जगत् को सबसे पहले तप का पाठ पढ़ाया तो श्रेयांसकुमार ने भिक्षा-दान की विधि से अनजान मानव-समाज को सर्वप्रथम भिक्षा-दान की विधि बतलाई। प्रभू के पारणे का वैशाख शुक्ला तृतीया का वह दिन अक्षयकरणी के कारण लोक में भाखातीज या अक्षय-तृतीया के नाम से प्रसिद्ध हुमा, जो आज भी सर्वजन-विश्रुत पर्व माना जाता है।
'प्रा. चू० पृ० १६२-६३
मा० चू० पृ० १६२-६३ 3 मा० म० २१७-१८ ४ प्रा० म० गिरि टीका पत्र २१८
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