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________________ ४७ विहारचर्या] भगवान् ऋषभदेव विहारचर्या श्रमण हो जाने के पश्चात् ऋषभदेव दीर्घकाल तक प्रखंड मौनव्रती होकर तपस्या के साथ एकान्त में निर्मोह भाव से ध्यान करते हुए विचरते रहे। दिगम्बर परम्परा के 'तिलोयपण्णत्ति' नामक ग्रन्थ में दीक्षा ग्रहण करते समय ऋषभदेव द्वारा ६ उपवास का तप अंगीकार किये जाने का उल्लेख है। प्राचार्य जिनसेन के अनुसार प्रभु ऋषभदेव ने दीक्षा ग्रहण करते समय छह मास का' अनशन तप धारण कर रखा था। पर श्वेताम्बर साहित्य में छ? तप से आगे उल्लेख नहीं मिलता, वहाँ बेले की तपस्या के पश्चात् प्रभु के भिक्षार्थ भ्रमण का विवरण मिलता है । श्वेताम्बर परम्परानुसार तपस्या बेले की ही की गई। प्रभू घोर अभिग्रहों को धारण कर अनासक्त भाव से ग्रामानुग्राम भिक्षा के लिये भ्रमण करते, पर भिक्षा एवं उसकी विधि का जन-साधारण को ज्ञान नहीं होने से, उन्हें भिक्षा प्राप्त नहीं होती। साथ के चार हजार श्रमण इस प्रतीक्षा में थे कि भगवान् उनकी सुधबुध लेंगे और व्यवस्था करेंगे, पर दीर्घकाल के बाद भी जब भगवान् कुछ नहीं बोले तो वे सब अनुगामी श्रमरण भूख-प्यास प्रादि परीषहों से संत्रस्त होकर वल्कलधारी तापस हो गये ।' कुलाभिमान व भरत के भय से वे पुनः घर में तो नहीं गये पर कष्टसहिष्णुता और विवेक के प्रभाव में सम्यक साधना से पथच्यूत होकर परिव्राजक बन गये और वन में जाकर वन्य फल-फूलादि खाते हुए अपना जीवन-यापन करने लगे। भगवान् आदिनाथ जो वीतराग थे, लाभालाभ में समचित्त होकर अग्लान भाव से ग्राम, नगर आदि में विचरते रहे। भावुक भक्तजन प्रादिनाथ प्रभु को अपने यहां प्राये देखकर प्रसन्न होते। कोई अपनी सुन्दर कन्या, कोई उत्तम बहुमूल्य वस्त्राभूषण, कोई हस्ती, अश्व, रथ, वाहन, छत्र, सिंहासनादि और कोई फलफूल आदि प्रस्तुत कर उन्हें ग्रहण करने की प्रार्थना करता, किन्त विधिपूर्वक भिक्षा देने का ध्यान किसी को नहीं पाता। भगवान् ऋषभदेव इन सारे उपहारों को अकल्पनीय मानकर बिना ग्रहण किये ही उलटे पैरों खाली हाथ लौट जाते। भगवान् का प्रथम पारगा इस प्रकार भिक्षा के लिये विचरण करते हुए ऋषभदेव को लगभग एक वर्ष से अधिक समय हो गया, फिर भी उनके मन में कोई ग्लानि पैदा नहीं हई । एक दिन भ्रमण करते हुए प्रभु कुरु जनपद में हस्तिनापुर पधारे । वहाँ बाहुबली के पौत्र एवं राजा सोमप्रभ के पुत्र श्रेयांस युवराज थे। उन्होंने रात्रि में स्वप्न देखा- "सुमेरु पर्वत श्यामवर्ण का (कान्तिहीन) होगया है, उसको मैंने अमृत ' षण्मासानशनं धीरः, प्रतिज्ञाय महाधृतिः । योगकाग्र्यनिरुद्धान्त - बहिष्करण विक्रियः । महा. पु. १८ (१ २ जे ते चत्तारि सहस्सा ते भिक्खं प्रलमंता तेणं मारणेण घरं रण काचति भरहस्स य भयेणं, पछावणमतिगता तावसा जाता .."। प्रावश्यक चूणि, पृष्ठ ११२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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