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जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[विद्याधरों की उत्पत्ति तरह हमें पापों को भी जड़मूल से उखाड़ फेंकना है । इन्द्र की प्रार्थना स्वीकार कर भगवान् ने एक मुष्टि के बाल रहने दिये । प्रभु के इस अपूर्व त्याग तप को देखकर देवों, दानवों और मानवों की विशाल परिषद् चित्र - लिखित सी हो गई ।
इस प्रकार संयम जीवन की निर्मल साधना से ऋषभदेव सर्वप्रथम मुनि, साधु एवं परिव्राजक रूप से प्रसिद्ध हुए । इनके त्याग से प्रभावित होकर उग्रवंश, भोगवंश, राजन्य और क्षत्रिय वंश के चार हजार राजकुमारों ने उनके साथ संयम ग्रहण किया ।' यद्यपि भगवान् ने उन्हें प्रव्रज्या नहीं दी, तथापि उन्होंने स्वयं ही प्रभु का अनुसरण कर लुंचन आदि क्रियाएं कीं और साधु बन कर उनके साथ विचरना प्रारम्भ किया । प्रभु के दीक्षा ग्रहण का वह दिन असंख्य काल बीत जाने पर भी श्राज कल्याणक दिवस के रूप में महिमा पा रहा है ।
विद्याधरों की उत्पत्ति
भगवान् ऋषभदेव जब सावद्य त्याग रूप श्रभिग्रह लेकर निर्मोह भाव से विचरने लगे, तब नमि और विनमि दो राजकुमार, जो कच्छ एवं महाकच्छ के पुत्र थे, भगवान् की सेवा में उपस्थित हुए। वे भगवान् से प्रार्थना करने लगे"प्रभो ! आपने सबको भोग्य सामग्री दी है, हमें भी दीजिये ।" इस प्रकार तीनों संध्या वे भगवान् के साथ लगे रहे। एक समय भगवान् को वन्दन करने के लिए धरणेन्द्र आया, उस समय भी नमि एवं विनमि ने भगवान् से इसी प्रकार की विनती की। यह देख कर धरणेन्द्र ने उनसे कहा- “मित्रो ! सुनो, भगवान् संगरहित हैं, इनको राग-रोष भी नहीं है, यहां तक कि अपने शरीर पर भी इनका स्नेह नहीं है । अतः इनसे याचना करना ठीक नहीं। मैं भगवान् की भक्ति के लिए तुम्हें, तुम्हारी सेवा निष्फल न हो इसलिए पठन - मात्र से सिद्ध होने वाली ४८००० विद्याएं देता हूँ । इनमें गौरी, गंधारी, रोहिणी और प्रज्ञप्ति ये चार महाविद्याएं हैं । इनको लेकर जाओ और विद्याधर की ऋद्धि से देश एवं नगर बसा कर सुख से विचरो ।" धरणेन्द्र से विद्याएं ग्रहण कर उन्होंने वैसा ही किया । नमि ने वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में रथनेउर प्रादि ५० नगर बसाये । उसी तरह विनमि ने भी उत्तर की ओर ६० नगर बसाये । नमि मौर विनमि ने विभिन्न देशों एवं प्रान्तों से सुसभ्य परिवारों को लाकर अपने नगर में बसाया । जो मनुष्य जिस देश से लाये गये थे, उसी नाम से वैताढ्य पर उनके जनपद स्थापित किये गये ।
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इस प्रकार नमि एवं विनमि ने आठ-आठ निकाय विभक्त किये मौर विद्या-बल से देवों के समान मनुष्य देव सम्बन्धी भोगों का उपभोग करते हुए विचरने लगे । मनुष्य होकर भी विद्या-बल की प्रधानता से ये लोग विद्याधर कहाने लगे । और यहीं से विद्याधरों की परम्परा का प्रादुर्भाव हुआ । "
१ प्रा० नि० गाथा २४७
२ श्राव० चू० प्र० भा० पृ०१६१-६२
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