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प्रव्रज्या का संकल्प - वर्षीदान ]
भगवान् ऋषभदेव
प्रव्रज्या का संकल्प प्रौर वर्षीवान
प्रादि नरेन्द्र ऋषभदेव ने दीर्घकाल पर्यन्त लोकनायक के रूप में राज्य का संचालन कर प्रेम और न्यायपूर्वक ६३ लाख पूर्व तक प्रजा का पालन किया । उन्होंने लोक-जीवन में व्याप्त अव्यवस्था को दूर कर न्याय, नीति एवं व्यवस्था का संचार किया । तदनन्तर स्थायी शान्ति प्राप्त करने एवं निष्पाप जीवन जीने के लिये भोग-मार्ग से योग मार्ग अपनाना श्रावश्यकं समझा । उनका विश्वास था कि अध्यात्म-साधन के बिना मानव की शान्ति स्थायी नहीं हो सकती । यही सोचकर उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य का उत्तराधिकारी बनाया और शेष निन्यानवे पुत्रों को पृथक्-पृथक् राज्य देकर गृहस्थ जीवन के दायित्व से स्वयं छुटकारा पाया और ग्रात्म-साधना के मार्ग पर बढ़ने का संकल्प किया ।
प्रभु के इस मानसिक निश्चय को जानकर नव लोकान्तिक देवों ने अपना कर्त्तव्य पालन करने हेतु प्रभु के चरणों में प्रार्थना की- "भगवन् ! सम्पूर्ण जगत् के कल्याणार्थं धर्म-तीर्थ को प्रकट कीजिये ।" लोकान्तिक देवों की प्रार्थना सुनकर प्रभु ने वर्षी दान प्रारम्भ किया, संसार-त्याग की भावना से उन्होंने प्रतिदिन' प्रभात की पुण्य वेला में एक करोड़ और आठ लाख स्वर्ण-मुद्रात्रों का दान देना प्रारम्भ किया । प्रभु ने निरन्तर एक वर्ष तक दान किया । इस प्रकार ऋषभदेव द्वारा एक वर्ष में कुल मिला कर तीन अरब अट्ठासी करोड़ और अस्सी लाख सुवर्ण मुद्राओं का दान दिया गया । दान के द्वारा उन्होंने जन-मानस में यह भावना भर दी कि द्रव्य के भोग का महत्त्व नहीं, अपितु उसके त्याग का ही महत्त्व है ।
ग्रभिनिष्क्रमरण-श्रमरणवीक्षा
इस प्रकार ८३ लाख पूर्व गृहस्थ - पर्याय में बिता कर चैत्र कृष्णा नवमी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में ऋषभदेव ने दीक्षार्थं प्रभिनिष्क्रमण किया । उन्होंने विशाल राज्य-वैभव और परिवार को छोड़कर भव्य भोग-सामग्री को तिलांजलि दी प्रौर शुद्ध प्रात्मस्वरूप को प्राप्त करने के लिये देव-मानवों के विशाल समुदाय के साथ विनीता नगरी से निकल कर षष्टमभक्त के निर्जल तप से प्रशोक वृक्ष के नीचे अपने सम्पूर्ण पापों को त्याग कर मुनि दीक्षा स्वीकार की और सिद्ध की साक्षी से यह प्रतिज्ञा की "सव्वं प्रकररिणज्जं पात्र कम्मं पच्चक्खामि अर्थात् हिंसा प्रादि सब पापकर्म प्रकरणीय हैं, अतः मैं उनका सर्वथा त्याग करता हूँ ।" शिर के बालों का चतुर्मुष्टिक लुंचन कर प्रभु ने बतलाया कि शिर के बालों की
, प्राव० नि० गाथा २३ व २४२
(घ) कल्पसूत्र, सू० १६५, पृ० ५७, पुण्य विजयजी
(प्रा) जम्बू द्वीप प्रज्ञप्ति में चैत्र कृ० ६ का उल्लेख है ।
(इ) हरिवंश पुराण में चैत्र कृ० ६ का उल्लेख है ।
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