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________________ ४४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [ऋषभकालीन विशाल भारत "भगवान् ऋषभदेव के समय में भरतक्षेत्र सुन्दर, समृद्ध बड़े-बड़े ग्रामों, नगरों तथा जनपदों से संकुल एवं धन-धान्यादिक से परिपूर्ण था। उस समय सम्पूर्ण भरतक्षेत्र साक्षात् स्वर्गतुल्य प्रतीत होता था। उस समय का प्रत्येक ग्राम नगर के समान और नगर अलकापुरी की तरह सुरम्य और सुख सामग्री से समद्ध थे। राष्ट्र का प्रत्येक नागरिक नपति के समान ऐश्वर्यसम्पन्न और प्रत्येक नरेश वैश्रवण के तुल्य राज्यलक्ष्मी का स्वामी था।" इस सबसे यही निष्कर्ष निकलता है कि आद्य राजा ऋषभदेव के समय में भारत वस्तुतः भ-स्वर्ग था। वनों में वक्षों के नीचे जीवन यापन करने वाली मानवता को महलों में बैठाने वाला वह शिल्पी कितना महान् होगा, इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती, क्योंकि संसार में कहीं कोई उसकी उपमा ही नहीं है। ऋषभकालीन विशाल भारत भगवान् ऋषभदेव के राज्यकाल में भारत की सीमाएं कहां से कहां तक थीं, इस सम्बन्ध में सुनिश्चित रूप से सीमांकन नहीं किया जा सकता। इसका एक बहुत बड़ा कारण है भौगोलिक परिवर्तन । परिवर्तनशीला प्रकृति ने इतनी लम्बी अति दीर्घकालावधि पार कर ली कि उस समय के बहुत से ऐसे भूखण्ड जो धनी और समृद्ध मानव-बस्तियों से संकुल थे, संभव है, उन भूखण्डों पर प्रकृति की एक करवट से ही अथाह सागर हिलोरें लेने लग गया हो। यह भी संभव है कि किसी समय जहाँ समुद्र लहरें ले रहा था, वहाँ किसी काल में प्राकृतिक परिवर्तनों के परिणामस्वरूप समुद्र के किसी और दिशा में सरकते हो भूखण्ड ऊपर उभर आये हों और उन पर मानव-बस्तियां बस गई हों। यह कोई केवल कल्पना की बात नहीं । आज के युग के भू-ज्ञान विशारद वैज्ञानिक और पुरातत्ववेत्ता भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि आज कतिपय भूखण्ड ऐसे हैं, जो सदीर्घातीत के किसी समय में समुद्र की अथाह जलराशि में डूबे हुए थे। वैष्णव परम्परा के पुराणों में भी किसी मन के समय में हुए अति भयावह जलविप्लव का उल्लेख उपलब्ध होता है। भूस्खलन, भूकम्प समुद्री तूफान, ज्वालामुखी-विस्फोट, अतिवृष्टि आदि प्राकृतिक प्रकोपों और सत्ता के लिये मानव द्वारा लड़े जाने वाले विनाशकारी युद्धों के परिणामस्वरूप होने वाले विप्लवों और परिवर्तनों का तो विश्व का इतिहास साक्षी है। __ ऐसी स्थिति में महाराजाधिराज ऋषभदेव के राज्य की सीमाओं के सम्बन्ध में साधिकारिक रूप से कहने की स्थिति में तो संभवतः आज कोई सक्षम नहीं है। हां, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि भरतक्षेत्र के जिन खण्डों पर केवल प्रतिवासुदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती ही आधिपत्य स्थापित कर सकते हैं, उन खण्डों को छोड़ शेष सम्पूर्ण भारत की प्रजा ने स्वेच्छा से ऋषभदेव को अपना राजा मान रखा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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