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प्रादि राजा का अनुपम राज्य] भगवान् ऋषभदेव
प्रादि राजा प्रादिनाथ का अनुपम राज्य भरतक्षेत्र के आदि राजा ऋषभदेव का राज्य नितान्त लोक कल्याण की भावनाओं से अोतप्रोत ऐसा अनुपम राज्य था, जिसका यथावत् सांगोपांग चित्रण न तो वाणी द्वारा सम्भव है और न लेखिनी द्वारा ही। महाराज ऋषभदेव में पदलिप्सा लवलेश मात्र भी नहीं थी। अन्य राजाओं, प्रतिवासुदेवों, वासुदेवों एवं चक्रवतियों की तरह न तो उन्होंने कभी कोई दिग्विजय ही की और न राज्यसुख भोगने की कोई कामना ही। उन्हें तो प्रजा ने स्वतः अपने अन्तर्मन की प्रेरणा से राजा बनाया। जीवन निर्वाह की विधि से नितान्त अनभिज्ञ तत्कालीन मानव समाज की अभाव-अभियोग और पारस्परिक क्लेशों के कारण उत्पन्न हुई प्रशान्त, विक्षब्ध, संत्रस्त एवं निराशापूर्ण दयनीय दशा पर द्रवित हो संकटग्रस्त मानवता की करुण पुकार और प्रार्थना सुन कर एक मात्र जनहिताय-लोक कल्याण की भावना से ही प्रभु ने अनुशासनप्रिय, स्वावलम्बी, ससभ्य समाज की सरचना का कार्यभार सम्हाला। उन्होंने केवल मानवता के कल्याण के लिये राजा के रूप में जिस दुष्कर दायित्व को अपने ऊपर लिया, उसका अपने राज्यकाल में पूर्ण निष्ठा के साथ निर्वहन किया । केवल प्रकृति पर निर्भर रहने वाले उन प्रकृति पुत्रों के शिर पर से जब कल्पवृक्ष की सुखद छाया उठ गई तब प्रभु ऋषभदेव ने अपना वरदहस्त उनके शिर पर रखा। प्रभु ने उन लोगों को स्वावलम्बी सुखी जीवन जीने के लिए १०० शिल्प, मसि, मसि और कृषि - इन तीन कर्मों के अन्तर्गत आने वाले सभी प्रकार के कर्म (कार्य) और सब प्रकार की कलाओं का उन लोगों को स्वयं तथा अपनी संतति के माध्यम से उपदेश अथवा प्रशिक्षण दिया। भरत आदि के निर्देशन, देवों के सहाय्य और अपने उत्तरोत्तर बढ़ते हुए अनुभव के आधार पर मानव तीव्र गति से कर्मक्षेत्र में निरन्तर मागे की ओर बढ़ता ही गया।
और उस सब का सुखद परिणाम यह हया कि भारत का भूमण्डल हरेभरे खेतों, बड़े-बड़े बगीचों, यातायात के लिये निर्मित देश के इस कोने से उस कोने तक लम्बे प्रशस्त पथों, गगनचुम्बी अट्टालिकामों वाले भवनों, ग्रामों, नगरों, पत्तनों प्रादि से मण्डित हो स्वर्ग तुल्य सुशोभित होने लग गया। देश के कोने-कोने में प्रापरिणकाओं, पण्य शालाओं और घर-घर के कोष्ठागारों में अन्न, धन आदि सभी प्रकार की उपभोग्य सामग्रियों के प्रम्बार लग गये। प्रभावअभियोग का इस प्रायं धरा से नाम तक उठ गया।
ऋषमकालीन भारत और भारतवासियों को गरिमा प्रभु ऋषभदेव के गज्यकाल में भारत और भारतवासी सर्वतोमुखी प्रभ्युन्नति के उच्चत्तम शिखर पर पहुँच गये। इस सम्बन्ध में शास्त्रों में तीर्थंकर काल का जो समुच्चय रूप से उल्लेख है, उसके प्राधार पर प्राद्य नरेश्वर ऋषभदेव के राज्यकाल का विवरण इस रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है :
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