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________________ ४२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भ० ऋषम द्वारा वर्णव्यवस्था भगवान् ऋषमदेव द्वारा वर्ण व्यवस्था का प्रारम्भ भगवान् प्रादिनाथ से पूर्व भारतवर्ष में कोई वर्ण या जाति की व्यवस्था नहीं थी, सब लोगों की एक ही - मानव जाति थी। उनमें ऊंच-नीच का भेद नहीं था। सब लोग बल, बुद्धि और वैभव में प्रायः समान थे। कोई किसी के अधीन नहीं था। प्राप्त सामग्री से सब को संतोष था, अतः उनमें कोई जाति-भेद की आवश्यकता ही नहीं हुई। जब लोगों में विषमता बढ़ी और जनमन में लोभमोह का संचार हुआ तो भगवान आदिनाथ ने वर्ण-व्यवस्था का सूत्रपात किया। भोग-युग से कृत-युग (कर्म-युग) का प्रारम्भ करते हुए उन्होंने ग्राम, कस्बे, नगर, पत्तन प्रादि के निर्माण की, शिल्प एवं दान आदि की, उस समय के जनसमुदाय को शिक्षा दी। चिर-काल से भोग-युग के अभ्यस्त उन लोगों के लिए कर्मक्षेत्र में उतर कर प्रथक एवं अनवरत परिश्रम करने की यह सर्वथा नवीन शिक्षा थी। इस कार्य में भगवान् को कितना अनथक प्रयास करना पड़ा होगा, इसकी आज कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस सब अभिनव-प्रयास के साथ ही ऋषभदेव ने सामाजिक जीवन से नितान्त अनभिज्ञ उस समय के मानव का सुन्दर, शान्त और सुखमय जीवन बनाने के लिए सह-अस्तित्व का पाठ पढ़ाते हुए सब प्रकार से समीचीन समाज-व्यवस्था की आधारशिला रखी। जो लोग शारीरिक दृष्टि से अधिक सुदृढ़ और शक्ति-सम्पन्न थे, उन्हें प्रजा की रक्षा के कार्य में नियुक्त कर पहिचान के लिए उस वर्ग को क्षत्रिय वर्ण की संज्ञा दी गई। जो लोग कृषि, पशुपालन एवं वस्तुओं के क्रय-विक्रय-वितरण अर्थात् वाणिज्य में निपुण सिद्ध हुए, उन लोगों के वर्ग को वैश्य वर्ण की संज्ञा दी गई। जिन कार्यों को करने में क्षत्रिय और वैश्य लोग प्रायः अनिच्छा एवं प्रचि अभिव्यक्त करते, उन कार्यों को करने में भी जिन लोगों ने तत्पर हो जनसमुदाय की सेवा में विशेष अभिरुचि प्रकट की, उस वर्ग के लोगों को शूद्र वर्ण को संज्ञा दी गई। इस प्रकार ऋषभदेव के समय में क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णो की उत्पत्ति हुई। भगवान् ऋषभदेव ने मानव को सर्वप्रथम सह-अस्तित्व, सहयोग, सहृदयता, सहिष्णुता, सुरक्षा, सौहार्द एवं बन्धुभाव का पाठ पढ़ाकर मानव के हृदय में मानव के प्रति भ्रातृभाव को जन्म दिया। उन्होंने गुण-कर्म के अनुसार वर्ण-विभाग किये, जन्म को प्रधानता नहीं दी और लोगों को समझाया कि सब अपना-अपना काम करते हुए एक-दूसरे के साथ प्रेम पूर्ण व्यवहार करें, किसी को तिरस्कार की भावना से न देखें । ' मादिपुराण, पर्व १६, श्लोक २४३ से २४६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.ord
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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