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________________ ५० जैन धर्म का मौलिक इतिहास [भगवान् का प्रथम पारण निर्वाण हो चुका था, साधु-साध्वियों को मिला कर प्रभु के ६०,००० अन्तेवासी भी सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो चुके थे । इस अवसर्पिणी काल के नो कोटाकोटि सागरोपम व्यतीत हो जाने पर तो प्रभु अनन्त-अव्यय-अव्याबाध-शाश्वत सुखधाम शिवधाम में विराजमान थे। आदि प्रभू तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने वस्तुतः धर्मतीर्थ का प्रवर्तन उस समय किया जब कि इस अवसपिणी काल के नौ कोटाकोटि सागरोपम व्यतीय होने में एक हजार तीन वर्ष, पाठ मास और पन्द्रह दिन कम एक लाख पूर्व का सुदीर्घ समय अवशिष्ट था-बाकी था- शेष था। . ___ इस प्रकार की स्थिति में "लकीर के फकीर" की कहावत को चरितार्थ करते हुए यदि कोई व्यक्ति हठधर्मिता का आश्रय लेकर उपर्युक्त सूत्र का यथावत् अक्षरशः शब्दार्थ किसी विज्ञ से मनवाने का प्रयास करे तो उसका शास्त्रीयता के नाम पर किया गया वह प्रयास शास्त्र की भावना से पूर्णतः प्रतिकूल ही होगा। इसमें कभी कोई दो राय नहीं हो सकती कि इस सूत्र में संक्षेप शैली को अपना कर एक हजार तीन वर्ष और साढ़े आठ मास कम एक लाख पूर्व की अवधि का उल्लेख न करते हए मोटे रूप से ६ कोटाकोटि सागरोपम की अवधि का उल्लेख कर दिया गया है। इसी प्रकार का दूसरा उदाहरण भगवान् महावीर के जीवनकाल का भी है। शास्त्रों में उल्लेख है कि भगवान् महावीर ३० वर्ष गृहस्थावस्था में और ४२ वर्ष तक (छद्मस्थ काल और केवली-काल मिला कर) साधक जीवन में रह कर ७२ वर्ष की आयु पूर्ण कर निर्वाण को प्राप्त हुए। स्थानांग सूत्र में भगवान् महावीर के छद्मस्थ काल के सम्बन्ध में उल्लेख है कि वे बारह वर्ष और तेरह पक्ष अर्थात् साढ़े बारह वर्ष और १५ दिन तक छद्मस्थावस्था में रहे।' आचारांग सूत्र में प्रभु के छद्मस्थ काल को संक्षेप शैली में उल्लेख करते हुए बारह वर्ष का ही बताया गया है। इसी प्रकार प्रभु महावीर का केवली-पर्याय ३० वर्ष का माना जाता है परन्तु उनके ४२ वर्ष के संयमित जीवन में से साढ़े बारह वर्ष और १५ दिन का छद्मस्थ काल का समय निकाल देने पर वस्तुतः उनके केवल ज्ञान का काल २६ वर्ष, ५ मास और १५ दिन का ही होता है। ठीक इसी प्रकार दीक्षा के समय भगवान ऋषभदेव द्वारा ग्रहण किया गया बेले का तप भिक्षा न मिलने के कारण १२ मास से भी अधिक समय तक चलता रहा और जब श्रेयांशकुमार से प्रभु को भिक्षा मिली तो शास्त्र में उसी ' दुवालस संवच्छराइं तेरस पक्ख छउमत्थ........ (स्थानांग सूत्र, स्था० ६, उ० ३, सूत्र ६६३, प्रमोलकऋषि जी म. सा० द्वारा अनूदित, पृ० ८१६) । .."बारस वासाई वोसट्ठकाए चियत्त देहे जे केई उवसग्गा समुप्पज्जति"ते सव्वे उपसग्गे, समुप्पण्णे समाणे सम्मं सहिस्सामि, खमिस्सामि, अहियासिस्सामि ॥ (प्राचारांग सूत्र, श्रु० २, अ० २३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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