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भगवान् का प्रथम पारणा] भगवान् ऋषभदेव सूत्र-लक्षणानुसारिणी संक्षेप-शैली में उस घटना का उल्लेख - "संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसहेण लोगनाहेग" - इस रूप में किया। तो "संवच्छरेण भिक्खा लद्धा" - यह वस्तुतः व्यवहार-वचन है । व्यवहार-वचन में एक वर्ष से ऊपर के दिन अल्प होने के कारण, गरगना में उनका उल्लेख न कर मोटे तौर पर संवत्सर तप कह दिया गया है । जैसा कि ऊपर दो शास्त्रीय उद्धरणों के साथ बताया गया है कि शास्त्र में इस प्रकार के कतिपय उल्लेख मिलते हैं, जिनमें काल की न्यूनाधिकता होने पर भी व्यवहार दृष्टि से बाधा नहीं मानी जाती। दीक्षाकाल से भिक्षाकाल पर्यन्त १३ मास और १० दिन तक प्रभु निर्जल और निराहार रहे, उस समय को शास्त्र में व्यवहार भाषा में 'संवच्छर' कहा गया है। कालान्तर में इसे व्यवहार भाषा में संभव है वर्षी-तप के नाम से अभिहित किया जाने लगा हो।
शास्त्र में तो "संवच्छरेग भिक्खा लद्धा उसहेण लोगनाहेण" - इस उल्लेख के अतिरिक्त किसी मास अथवा तिथि का उल्लेख नहीं मिलता। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में भगवान् ऋषभदेव का सार रूप में जीवन-वृत्त दिया हुआ है, पर वहाँ दीक्षा के समय प्रभू के बेले के तप के अतिरिक्त कितने समय तक भिक्षा नहीं मिली, अन्त में किस दिन, किस मास में भिक्षा मिली एतद्विषयक कोई उल्लेख नहीं है।
_ हां, श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के साहित्य में भगवान् ऋषभदेव को प्रथम भिक्षा मिलने के सम्बन्ध में जो उल्लेख हैं, उनसे यह स्पष्टतः प्रकट होता है कि भगवान ऋषभदेव को दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् एक वर्ष से भी अधिक समय बीत जाने पर प्रथम भिक्षा मिली।
जिन ग्रन्थों में भगवान् ऋषभदेव के प्रथम पारणक के सम्बन्ध में उल्लेख उपलब्ध होते हैं, उनमें से कतिपय में प्रभू के पारणक की तिथि का कोई उल्लेख नहीं है किन्तु तीन ग्रन्थों में स्पष्ट उल्लेख है कि प्रभू आदिनाथ का प्रथम पारणक अक्षय तृतीया के दिन हुआ। जिन ग्रन्थों में पारणक की तिथि का उल्लेख नहीं है, वे हैं - वसुदेवहिण्डी तथा हरिवंशपुरागा और जिन ग्रन्थों में अक्षय तृतीया के दिन प्रभु का प्रथम पारणक होने का उल्लेख है, वे हैं - खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली, त्रिपष्टिशलाकापुरुष चरित्र और अपभ्रंश भाषा के महाकवि पुष्पदन्त का महापुराण ।
विक्रम की सातवीं शताब्दी के जिनभद्रगरिण क्षमाश्रमण के समकालीन संधदामगगि ने वसुदेव हिण्डी में भगवान् ऋषभदेव के प्रथम पारणक का उल्लेख निम्नलिखित रूप में किया है :___"भयवं पियामहो निराहारो परमधिति बल सायरो सयंभुसागरो इव थिमियो प्रणाउलो संवच्छरं विहरइ, पत्तो य हत्थिरणारं । तत्थ य बाहुबलिस्स सुप्रो सोमप्पहो, तस्स य पुत्तो सेज्जंसो।"
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