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चक्रवर्ती महापद्म]
चक्रवर्ती महापद्म
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.. नमुचि के हाथों में सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के शासन की बागडोर आते ही प्रतिष्ठित पौरजनों, सामन्तों, विभागाध्यक्षों एवं विभिन्न धर्मों के धर्माचार्यों ने नमुचि के पास उपस्थित हो उसे वर्धापित करते हुए उसके यज्ञ की सफलता के लिए अपनी ओर से शुभकामनाएँ अभिव्यक्त की। सभी प्रकार के ऐहिक प्रपंचों से सदा दूर रहना, यह श्रमणाचार को एक बहुत बड़ी महत्त्वपूर्ण मर्यादा है, इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए सुव्रताचार्य नमुचि के पास नहीं गये । इस पर नमुचि बड़ा क्रुद्ध हुआ । सुव्रताचार्य और श्रमणवर्ग के प्रति अपनी वैर भावना से प्रेरित हो कर ही तो नमचि ने यह सब प्रपंच रचा था । वह क्रोधाविष्ट हो सुव्रताचार्य के पास गया और उन्हें राज्य विरोधी, पाखण्डी, मर्यादालोपक आदि अशिष्ट एवं हीन विशेषणों से सम्बोधित करते हुए उनसे कहा"तुम लोग सात दिन के अन्दर-अन्दर मेरे राज्य की सीमा से बाहर चले जाओ। उस अवधि के पश्चात् तुम लोगों में से यदि कोई भी साधु मेरे राज्य में रहा तो उसे कठोर से कठोर मृत्यु दण्ड दिया जायगा । बस, यह मेरी अन्तिम और अपरिहार्य प्राज्ञा है।" इस प्रकार की प्राज्ञा देने के पश्चात नमुचि अपने आवास की ओर लौट गया।
श्रमण संघ को इस घोर संकट से बचाने के लिए सुदूरस्थ प्रदेश में तपश्चरण में निरत अपने शिष्य महान् लब्धिधारी मुनि विष्णुकुमार को सुव्रताचार्य ने बुलवाया । लब्धिधारी. महामुनि विष्णुकुमार ने हस्तिनापुर में आते ही नमुचि को समझाने का भरसक प्रयास किया । किन्तु राज्यमद में मदान्ध नमुचि अपने हठ पर डटा ही रहा । अन्त में मुनि विष्णुकुमार ने नमुचि से कहा-"अच्छा नमुचि ! कम से कम तीन चरण भूमि तो मुझे रहने के लिए दे दो।"
नमचि ने कहा- मैं तुम्हें तीन चरण भूमि देता हैं। उस तीन चरण भूमि से बाहर जो भी साधु रहेगा, उसे तत्काल मार दिया जायेगा।"
तीन चरण भूमि देने की स्वीकृति ज्यों ही नमुचि ने दी कि मुनि विष्णुकुमार ने वैक्रिय लब्धि के प्रयोग से अपना शरीर बढ़ाना प्रारम्भ किया । देखते ही देखते असीम आकाश विष्णु मुनि के विराट् शरीर से प्रापूरित हो गया। संसागरा, सपर्वता पृथ्वी प्रकम्पित हो उठी, आकाश आन्दोलित हो उठा। मुनि विष्णुकुमार के इस अदृष्टपूर्व विराट स्वरूप को देख कर नमुचि आश्चर्याभिभूत एवं भयाक्रान्त हो धड़ाम से धरती पर गिर पड़ा । मुनि विष्णुकुमार ने अपना एक चरण समुद्र के पूर्वीय तट पर और दूसरा चरण सागर के पश्चिमी तट पर रखा और प्रलय-धनघटा की गड़गड़ाहट सन्निभ स्वर में नमुचि से पूछा-"अब बोल नमुचे ! मैं अपना तीसरा चरण कहां रखू?"
उस अदष्ट-प्रश्रुतपूर्व चमत्कारकारी भयावह दृश्य से भयभीत हा . नमुचि झंझावात से झकझोरित पीपल के पत्ते के समान कांपता ही रहा ।
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