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________________ ३०४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [चक्रवर्ती महापण नमुचि को आज्ञा दी । नमुचि ने एक सशक्त एवं विशाल सेना के साथ सिंहरप पर माक्रमण किया। उसने सिंहरथ के सुदृढ़ दुर्ग को चारों मोर से घेर कर रसद पहुंचने के सभी मार्गों को पूर्णरूपेण अवरुद्ध कर दिया । लम्बे समय तक 'दुर्ग के चारों ओर अपनी सेना का घेरा डाले रखने के अनन्तर नमुचि ने दाम-नीति और भेद-नीति का प्राश्रय ले दुर्गरक्षकों को अपने पक्ष में कर लिया। इस प्रकार उसे एक दिन सहसा अपनी सेना के साथ सिंहरथ के दुर्ग में प्रवेश करने का अवसर मिल गया । नमुचि ने तत्काल दुर्ग पर युवराज महापद्म का प्राधिपत्य स्थापित कर दिया और सिंहरथ को बन्दी बना युवराज के समक्ष उपस्थित किया । दुर्भेद्य दुर्ग और दुर्दान्त शत्रु को अपने वश में पा युवराज महापद्म परम प्रसन्न हुमा । नमुचि को उसकी इस दुस्साध्य सफलता पर साधुवाद देते हुए युवराज ने उसे एक अभीप्सित वस्तु मांगने का प्राग्रह किया । नमुचि ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए युवराज महापदम से निवेदन किया-"स्वामिन् ! प्रापका कृपाप्रसाद ही मेरे लिये पर्याप्त है, तदुपरान्त भी प्रापका पाग्रह है तो मेरे इस वर को प्राप धरोहर के रूप में अपने पास रखिये, पावश्यकता पड़ने पर मैं प्रापसे यह वर मांग लूगा।" युवराज ने नमुचि की प्रार्थना स्वीकार कर उसको दिये हुए वरदान को अपने पास धरोहर के रूप में रख लिया। कालान्तर में महापद्म की प्रायुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुमा । उसने षट्खण्ड की साधना की और वह १४ रत्नों एवं ६ निधियों का स्वामी बना। जिस समय भरतक्षेत्र के छहों खण्डों का एकछत्र प्रषिपति चक्रवर्ती सम्राट् महापद्म हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर आसीन हो सम्पूर्ण भरतक्षेत्र पर शासन कर रहा था, उस समय सुव्रताचार्य अपने शिष्य समूह के साथ हस्तिनापुर पधारे और धर्मनिष्ठ श्रद्धालु नगर निवासियों की प्रार्थना पर चातुर्मासावधि पर्यन्त उन्होंने नगर के बाहर एक उद्यान में रहना स्वीकार कर लिया। अपने अपमान का प्रतिशोध लेने का यह उपयुक्त अवसर समझ नमुचि ने चक्रवर्ती महापद्म को उनके पास धरोहर में रखे हुए अपने वरदान का स्मरण दिलाते हए निवेदन किया-"भरतेश्वर ! मेरी यह प्रान्तरिक अभिलाषा है कि मैं अपने परलोक की सिद्धि हेतु एक महान् यज्ञ करूं । वह महायज्ञ सभी भांति सुचारु रूप से सम्पन्न हो, इसके लिए मैं धरोहर के रूप में रखे गये उस वरदान के रूप में प्रापसे यह मांगता हूं कि माज से ले कर यज्ञ की पूर्णाहूति होने तक आपके सम्पूर्ण राज्य का स्वामी मैं रहूं । सर्वत्र मेरी माशा शिरोधार्य एवं अनुल्लंघनीय रहे।" सत्यसन्ध चक्रवर्ती महापद्म ने तत्काल यज्ञ की पूर्णाहूति के समय तक के लिए अपना सम्पूर्ण राज्याधिकार नमुचि को दे अन्तःपुर में अपना निवास कर दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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