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________________ चक्रवर्ती महापन] चक्रवर्ती महापय ३०३ अदृष्ट शक्ति के प्रभाव से अथवा मुनिमण्डल के तपोनिष्ठ श्रमणजीवन के प्रताप से उस उद्यानशाला के द्वार पर ही वह स्तम्भित हो गया। नमुचि के हाथ ऊपर के ऊपर ही उठे रह गये। जब नमुचि ने यह अनुभव किया कि वह अपने हाथों को और तलवार को तिलमात्र भी इधर से उधर नहीं कर पा रहा है तो उसी अवस्था में उसने वहां से भाग निकलने का उपक्रम किया। परन्तु उसने पाया कि वह पूर्ण रूप से स्तम्भित हो चुका है, पूरी शक्ति लगा कर सभी प्रकार के प्रयास करने के उपरान्तं भी वह अपने किसी भी अंगप्रत्यंग को किंचित्मात्र भी हिलाने में असमर्थ है । अन्ततोगत्वा नमुचि निराश हो गया । सूर्योदय होते ही उसकी कैसी भयंकर दुर्दशा होगी, दुर्गति होगी, कलंक-कालिमापूर्ण उसकी भयंकर अपकीर्ति प्रातःकाल होते ही दिग्दिगन्त में फैल जायगी, नरेश्वर को और नागरिकों को वह अपना काला मह किस प्रकार दिखायेगा-इन विचारों से वह सिहर उठा, उसका मुख विवरण हो काला पड़ गया। वह मन ही मन सोचने लगा-"अच्छा हो यह धरती फट जाय और मैं उसमें समा जाऊं, छप जाऊं।" पर भला, पाप भी क्या कभी छुपाये छुपा है । न धरती ही फटी और न वह अपने आपको छुपा ही पाया । ब्राह्म मुहूर्त में सर्वप्रथम स्वताचार्य ने नमुचि को उस रूप में खड़े देखा । तदनन्तर मुनिमण्डल ने भी देखा । हर्षामर्ष-विहीन-सम शत्रु-मित्र मुनिमण्डल समभाव से सदा की भांति अपनी आवश्यक धर्मक्रियाओं के निष्पादन में निरत हो गया। प्रातःकाल होते ही मनिमण्डल के दर्शनार्थ आये हुए श्रद्धालु नागरिकों ने नमचि को उस रूप में स्तब्धावस्था में देखा। विद्युत् वेग से यह संवाद नगर के कोने-कोने में प्रसृत हो गया । सहस्रों-सहस्रों नागरिकों के समूह पहाड़ी नदी के प्रवाह के समान उस उद्यान की ओर उमड़ पड़े । उद्यान नागरिकों से खचाखच भर गया। चारों ओर से नमूचि पर कटुवचनों की अनवरत वर्षा होने लगी। सब ओर उसकी भयंकर अपकीति फैल गई । नमुचि बड़ा अपमानित हुआ । स्तम्भन का प्रभाव परिसमाप्त होते ही वह अपने घर में आ कर छुप गया । उज्जयिनी में रहना उसके लिए वस्तुतः अब ज्वालामालाओं से संकुल भीषण भट्टी में रहने तुल्य दुस्सह्य एवं दूभर हो गया। एक दिन चुपचाप वह उज्जयिनी से निकला और घूमता-धामता हस्तिनापुर पहुंचा। हस्तिनापुर पहुंचने के पश्चात् नमुचि युवराज महापद्म के सम्पर्क में आता रहा और युवराज ने उसे अपनी मन्त्रिपरिषद् में स्थान दिया। उन्हीं दिनों हस्तिनापुर राज्य में युवराज महापय के एक अधीनस्थ राजा सिंहरथ ने उत्पात करना प्रारम्भ किया । सिंहरथ अपने पड़ोस-पड़ोस के क्षेत्रों में युवराज महापद्म की प्रजा को लूट-मार कर अपने दुर्ग में घुस जाता । युवराज पद्मरथ ने सिंहरथ को पकड़ कर दण्ड देने हेतु अपनी सेना भेजी किन्तु सिंहरथ का सुदृढ़ दुर्ग दुर्भेद्य एवं दुर्जेय था अतः युवराज की सेना उसे पकड़ने में असफल रही । अन्ततोगत्वा युवराज ने सिंहस्थ को बन्दी बना कर लाने के लिये अपने मंत्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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