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________________ ६७४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास [केवलीचर्या का संवत्सर का प्रारम्भ, चन्द्र की वृद्धि-हानि, चन्द्रादि ग्रहों का उपपात एवं च्यवन, चन्द्रादि की ऊंचाई एवं चन्द्र-सूर्य की जानकारी प्रादि प्रश्न मुख्य हैं। इस वर्ष का वर्षाकाल भी भगवान् ने मिथिला में ही व्यतीत किया। केवलीचर्या का अट्ठाईसवाँ वर्ष .... चातुर्मास के पश्चात् भगवान् ने विदेह में विचर कर अनेक श्रद्धालुनों को श्रमण-धर्म में दीक्षित किया और अनेक भव्यों को श्रावकधर्म के पथ पर प्रारूढ़ किया। संयोगवश इस वर्ष का चातुर्मास भी मिथिला में ही पूर्ण किया। .. केवलीचर्या का उनतीसा वर्ष वर्षाकाल के बाद भगवान ने मिथिला से मगध की ओर विहार किया और राजगृह पधार कर गुणशील उद्यान में विराजमान हुए। उन दिनों नगरी में महाशतक श्रावक ने अन्तिम आराधना के लिए अनशन कर रखा था। उसको अनशन में अध्यवसाय की शुद्धि से अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया था । आनन्द के समान वह भी चारों दिशाओं में दूर-दूर तक देख रहा था। उसकी अनेक स्त्रियों में 'रेवती' अभद्र स्वभाव की थी। उसका शील-स्वभाव श्रमणोपासक महाशतक से सर्वथा भिन्न था । महाशतक की धर्म-साधना से उसका मन असंतुष्ट था। एक दिन बेभान हो कर वह, जहां महाशतक धर्म-साधना कर रहा था, वहाँ पहुँची और विविध प्रकार के आक्रोशपूर्ण वचनों से उसका ध्यान विचलित करने लगी । शान्त होकर महाशतक सब कुछ सुनता रहा, पर जब वह सिर के बाल बिखेर कर अभद्र चेष्टानों के साथ यद्वा, तद्वा बोलती ही रही तो वे अपने रोष को नहीं संभाल सके । महाशतक को रेवती के व्यवहार से बहुत लज्जा और खेद हुआ, वह सहसा बोल उठा-"रेवती ! तू ऐसी अभद्र और उन्मादभरी चेष्टा क्यों कर रही है ? असत्कर्मों का फल ठीक नहीं होता। तू सात दिन के भीतर ही अलस रोग से पीड़ित हो कर असमाधिभाव में आयु पूर्ण कर प्रथम नर्क में जाने वाली है।" __ महाशतक के वचन सुन कर रेवती भयभीत हुई और सोचने लगी"अहो ! आज सचमुच ही पतिदेव मुझ ऊपर क्रुद्ध हैं । न जाने मुझे क्या दण्ड देंगे?" वह धीरे-धीरे वहाँ से पीछे की ओर लौट गई। महाशतक का भविष्य कथन अन्ततोगत्वा उसके लिये सत्य सिद्ध हुआ और वह दुर्भाव में मर कर प्रथम नरक की अधिकारिणी बनी। अन्तर्यामी भगवान महावीर को महाशतक की विचलित मनःस्थिति तत्काल विदित हो गई। उन्होंने गौतम से कहा- "गौतम ! राजगह में मेरा अन्तेवासी उपासक महाशतक पौषधशाला में अनशन करके विचर रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002071
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year1999
Total Pages954
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, Tirthankar, N000, & N999
File Size16 MB
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