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केवलीचर्या का छम्बीसवां वर्ष] भगवान् महावीर और प्रयोग हिंसाजनक होता है । पुद्गल मात्र रत्नादि की तरह प्रचित्त होते हैं।"
प्रभु के उत्तर से संतुष्ट होकर कालोदायी भगवान् को वन्दन करता हुआ और छट्ठ, अट्ठमादि तप करता हुआ अन्त में अनशनपूर्वक कालधर्म प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त करता है।
गणधर प्रभास ने भी एक मास का अनशन कर इसी वर्ष निर्वाण प्राप्त किया। इस प्रकार विविध उपकारों के साथ इस वर्ष भगवान् का चातुर्मास राजगृह में पूर्ण हुआ।
केवलीचर्या का छन्बीसवाँ वर्ष वर्षाकाल के पश्चात् विविध ग्रामों में विचरण कर प्रभु पुनः 'गुणशील' चैत्य में पधारे । गौतम ने यहाँ प्रभु से विविध प्रकार के प्रश्न किये, जिनमें परमाणु का संयोग-वियोग, भाषा का भाषापन और दुःख की प्रकृत्रिमता आदि प्रश्न मुख्य थे। भगवान् ने अन्य तीर्थ के क्रिया सम्बन्धी प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा-"एक समय में जीव एक ही क्रिया करता है ईर्यापथिकी अथवा सांपरायिकी । जिस समय ईपिथिकी क्रिया करता है, उस समय सांपरायिकी नहीं और सांपरायिकी क्रिया के समय ईपिथिकी नहीं करता। देखना, बोलना जैसी दो क्रियाएँ एक साथ हों, इसमें आपत्ति नहीं है, आपत्ति एक समय में दो उपयोग होने में है।"
इसी वर्ष प्रचलभ्राता और मेतार्य गणधरों ने भी अनशन कर निर्धारण प्राप्त किया। भगवान् ने इस वर्ष का वर्षाकाल नालंदा में ही व्यतीत किया ।
केवलीचर्या का सत्ताईसौं वर्ष . नालन्दा से विहार कर भगवान् ने विदेह जनपद की ओर प्रस्थान किया। विदेह के ग्राम-नगरों में धर्मोपदेश करते हुए प्रभु मिथिला पधारे । यहाँ राजा जितशत्रु ने प्रभु के प्रागमन का समाचार सुना तो वे नगरी के बाहर मणिभद्र चैत्य में वन्दन करने को माये । महावीर ने उपस्थित जनसमुदाय को धर्मोपदेश दिया। लोग वन्दन एवं उपदेश-श्रवण कर यथास्थान लौट गये।
अवसर पाकर इन्द्रभूति-गौतम ने विनयपूर्वक सूर्य चन्द्रादि के विषय में प्रभु से प्रश्न किये। जिनमें सूर्य का मंडल-भ्रमण, प्रकाश-क्षेत्र, पौरुषी छाया, १ भग० सू०, ७.१०, सू० ३०८ । २ भगवान् महावीर-कल्याणविजय । ३ भग०१० १, उ० १०, सू०७१।
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