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थावच्चापुत्र]
भगवान् श्री अरिष्टनेमि
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अपने पुत्र की बात सुन कर गाथा-पत्नी थावच्चा अवाक रह गई, मानो उस पर अनभ्र वज्र गिरा हो। उसने अपने पुत्र को त्याग-मार्ग से आने वाले घोर कष्टों से अवगत कराते हुए ग्रहस्थ-जीवन में रह कर ही यथाशक्ति धर्मसाधना करते रहने का आग्रह किया पर थावच्चा कुमार के अटल निश्चय को देख कर अन्त में उसने अपनी प्रान्तरिक इच्छा नहीं होते हुए भी उसे प्रव्रज्या लेने की अनुमति प्रदान की।
___ गाथा-पत्नी ने बड़ी धूमधाम के साथ अपने पुत्र का अभिनिष्क्रमणोत्सव करने का निश्चय किया। वह अपने कुछ प्रात्मीयों के साथ श्रीकृष्ण के प्रासाद में पहुँची और बहमूल्य भेंट अर्पित कर उसने कृष्ण से निवेदन किया-"राजराजेश्वर ! मेरा इकलौता पुत्र थावच्चा कुमार प्रभु अरिष्टनेमि के पास श्रमरणदीक्षा स्वीकार करना चाहता है। मेरी महती आकांक्षा है कि मैं बड़े ठाट के साथ उसका निष्क्रमण करू । अतः आप कृपा कर छत्र चंवर और मुकुट प्रदान कीजिये।"
श्रीकृष्ण ने कहा-"देवानप्रिये ! तुम्हें इसकी किंचितमात्र भी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं । मैं स्वयं तुम्हारे पुत्र का निष्क्रमणोत्सव करूगा।"
कृष्ण की बात से गाथा-पत्नी आश्वस्त हो अपने घर लौट आई। श्रीकृष्ण भी अपने विजय नामक गन्धहस्ती पर आरूढ़ हो चतुरंगिणी सेना के साथ थावच्चा गाथा-पत्नी के भवन पर गये और थावच्चा पुत्र से बड़े मीठे वचनों में बोले-“देवानुप्रिय ! तुम मेरे बाहुबल की छत्रछाया में बड़े प्रानन्द के साथ सांसारिक भोगों का उपभोग करो। मेरी छत्रछाया में रहते हुए तुम्हारी इच्छा के विपरीत सिवा वायु के तुम्हारे शरीर का कोई स्पर्श तक भी नहीं कर सकेगा। तुम सांसारिक सुखों को ठुकरा कर व्यर्थ ही क्यों प्रवजित होना चाहते हो?"
थावच्चापूत्र ने कहा- "देवानप्रिय ! यदि आप मत्य और बढापे से मेरी रक्षा करने का दायित्व अपने ऊपर लेते हो तो मैं दीक्षित होने का विचार त्याग कर बेखटके सांसारिक सुखों को भोगने के लिए तत्पर हो सकता हूँ । वास्तव में मैं इस जन्म-मरण से इतना उत्पीड़ित हो चुका हूँ कि गला फाड़ कर रोने की इच्छा होती है। त्रिखण्डाधिपते ! क्या आप यह उत्तरदायित्व लेते हैं कि जरा और मरण मेरा स्पर्श नहीं कर सकेंगे ?"
श्रीकृष्ण बड़ी देर तक थावच्चापुत्र के मुख की ओर देखते ही रहे और अन्त में अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए उन्होंने कहा- "जन्म, जरा और मरण तो दुनिवार्य हैं। अनन्तबली तीर्थंकर और महान् शक्तिशाली देव भी इनका
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