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४२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास
[महामुनि निवारण करने में असमर्थ हैं। इनका निवारण तो केवल कम-मल का क्षय करने से ही संभव है।"
थावच्चापुत्र ने कहा-"हरे ! मैं इस जन्म, जरा और मृत्यु के दुःख को मूलतः विनष्ट करना चाहता हूँ, वह बिना प्रव्रज्या-ग्रहण के संभव नहीं, अतः मैं प्रवजित होना चाहता हूँ।"
परम विरक्त थावच्चापुत्र के इस ध्र व-सत्य उत्तर से श्रीकृष्ण बड़े प्रभावित हए । उन्होंने तत्काल द्वारिका में घोषणा करवा दी कि थावच्चापुत्र अर्हत अरिष्टनेमि के पास प्रवजित होना चाहते हैं। उनके साथ जो कोई राजा, युवराज, देवी, रानी, राजकुमार, ईश्वर, तलवर, कौटुम्बिक, माण्डविक, इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति या सार्थवाह दीक्षित होना चाहते हों तो कृष्ण वासुदेव उन्हें सहर्ष प्रज्ञा प्रदान करते हैं । उनके आश्रित-जनों के योग-क्षेम का सम्पूर्ण दायित्व कृष्ण लेते हैं।"
श्रीकृष्ण की इस घोषणा को सुन कर थावच्चापुत्र के प्रति असीम अनुराग रखने वाले उग्रं-भोगवंशीय व इभ्य, श्रेष्ठी, सेनापति ग्रादि एक हजार पुरुष दीक्षित होने हेतु तत्काल तहाँ पा उपस्थित हुए।
__स्वयं श्रीकष्ण ने जलपूर्ण चांदी-सोने के घड़ों से थावच्चापुत्र के साथसाथ उन एक हजार दीक्षार्थियों का अभिषेक किया और उन सब को बहमूल्य सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर एक विशाल पालकी में बिठा उनका दीक्षामहोत्सव किया।
निष्क्रमणोत्सव की शोभायात्रा में सबसे आगे विविध वाद्यों पर मन को मुग्ध करने वाली मधुर धुन बजाते हुए वादकों की कतारें, उनके पीछे वाद्यध्वनि के साथ-साथ पदक्षेप करती हुई वासुदेव की सेना, नाचते हुए तरल तुरंगों की सेना, फिर मेघगर्जना सा 'घर-घर' रव करती रथसेना, चिंघाड़ते हुए दीर्घदन्त, मदोन्मत्त हाथियों की गजसेना और तदनन्तर एक हजार एक दीक्षार्थियों की देवविमान सी सुन्दर विशाल पालकी, उनके पीछे श्रीकृष्ण, दशाह, यादव कुमार और उनके पीछे लहराते हुए सागर की तरह अपार जन-समूह ।
समुद्र की लहरों की तरह द्वारिका के विस्तीर्ण स्वच्छ राजपथ पर अग्रसर होता हुआ निष्क्रमरणोत्सव का यह जलूस समवसरण की ओर बढ़ा । समवसरण के छत्रादि दृष्टिगोचर होते ही दीक्षार्थी पालकी से उतरे ।
___ श्रीकृष्ण थावच्चापुत्र को प्रागे लिये प्रभु के पास पहुंचे और तीन प्रदक्षिणापूर्वक उन्हें वन्दन किया। थावच्चापुत्र ने भगवान् को वन्दन किया और
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