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___ जन धर्म का मौलिक इतिहास [प्ररहन्नक द्वारा दिव्य-कुण्डल
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र की चम्पा नामक नगरी में जीव, अजीव प्रादि तत्वों का ज्ञाता एवं निर्ग्रन्थ प्रवचन में अटूट आस्था रखने वाला ऐसा श्रद्धानिष्ठ श्रावक है कि उसकी निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति अगाध आस्था एवं अविचल आस्था को कोई भी देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, किन्नर अथवा किंपुरिस विचलित नहीं कर सकता । मुझे एक मानव की प्रशंसा में कहे गये देवराज शक्र के वे वचन रुचिकर नहीं लगे, मुझे उनके इन वचनों पर विश्वास नहीं हुआ । मैंने देवेन्द्र के इन वचनों को अतुल शक्ति सम्पन्न देवों की दिव्य शक्ति के लिये चुनौती समझा । मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि अस्थि-मांस-मज्जा से निर्मित मानव शरीर में इस प्रकार की शक्ति हो सकती है। मैंने तुम्हारी परीक्षा लेने की ठानी। वस्तुतः तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए ही मैंने घोर भयावह पिशाच का रूप धारण कर तुम्हारे समक्ष इस प्रकार का घोर उपसर्ग उपस्थित किया है । मेरे मन में तुम्हारे प्रति अन्य किसी भी प्रकार की दुर्भावना नहीं थी। मैंने तुम्हारी परीक्षा के लिए तुम्हें घोरातिघोर प्राण संकट में डाला, किन्तु तुम अपने धर्म से, अपनी श्रद्धा से लेशमात्र भी विचलित नहीं हुए, तुम्हारे मन में किंचिन्मात्र भी भय उत्पन्न नहीं हुमा । तुम्हारी इस परीक्षा के पश्चात् मुझे पक्का विश्वास हो गया है कि सौधर्मेन्द्र ने जिन शब्दों में तुम्हारी प्रशंसा की, वह अक्षरशः सत्य है । वस्तुतः तुम दृढ़धर्मा, गुणों के भण्डार, तेजस्वी, प्रोजस्वी और यशस्वी हो । तुम्हारे धैर्य, वीर्य, पौरुष और पराक्रम को घोरातिघोर विपत्तियां भी विचलित नहीं कर सकतीं।"
यह कह कर वह अलौकिक कान्ति वाला देव अरहन्नक के चरणों पर गिर पड़ा । उसने बारम्बार अपने अपराध के लिये क्षमा मांगते हुए अरहन्नक को दिव्य कुण्डलों को दो होड़ियां भेंट की और वह अपने स्थान को लौट गया।
उस देवकृत उपसर्ग के समाप्त हो जाने के पश्चात् अरहन्नक ने अपने सागारिक संथारे का पारण किया। वे सब व्यापारी पुनः सुखपूर्वक समुद्र की यात्रा करने लगे । वायु से प्रेरित उनके जलपोत एक दिन एक विशाल बन्दरगाह पर पाये। उन पोत वरिणकों ने अपने जलपोतों को बन्दरगाह पर ठहराया और उनमें से अपने समस्त क्रयारणकों को गाड़ों में भर कर अनेक स्थलों में व्यापार करते हुए वे मिथिला नगरी में आये । वहाँ वे मिथिला नगरी के बहिस्थ उद्यान में ठहरे । उन व्यापारियों का मुखिया अरहन्नक श्रमणोपासक महाराजा को भेंट करने योग्य अनेक प्रकार की बहुमूल्य वस्तुएं और देव द्वारा प्रदत्त कुण्डलों की दो जोड़ियों में से एक जोड़ी ले कर मिथिलाधिपति महाराजा कुम्भ की सेवा में उपस्थित हा । उसने वह दिव्य कुण्डल-युगल और उपहार स्वरूप लाई हुई वस्तुएं महाराजा कुम्भ को भेंट की। महाराजा कुम्भ ने उसी समय भगवती मल्ली को बुलाया और उन्हें वे कुण्डल कानों में धारण करवा दिये ।
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